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सुमेरू पर्वत कहीं दृष्टिगत नहीं है, अन्य सामंजस्य भी पूर्वाग्रह से संशलिष्ट असफल प्रयास ही है। कार्माण वर्गणा का जीन्स से संबंध भी ऐसा ही उद्धरण है। क्लोनिंग और कर्म सिद्धान्त का संदर्भ भी मात्र तर्क से प्रमाणित नहीं किया जा सकता। इसी अंक में नन्दलाल जैन ने अपने लेख में पुदगल की अजीव के रूप में मान्यता भी कालान्तर में आगमोत्तर बताई है।
अत: मेरा सुझाव है कि कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ द्वारा रसायन, भौतिक, आदि प्रयोगशालाएँ स्थापित कर वैज्ञानिक प्रयोगात्मक आधार पर जैन धर्म की विभिन्न अवधारणाओं को प्रमाणित करने का प्रयास किया जावे। जैन साहित्य में अभक्ष्य आदि विषयों के अनगिनत तत्व छिपे हैं जिन्हें प्रयोगशालाओं के माध्यम से सहज प्रमाणित किया जा सकता है। इसी प्रकार अनेक पर्यावरणीय तत्व भी प्रयोगों से सिद्ध किये जा सकते हैं। अर्हत् - वचन के अप्रैल 97 में कल्प वृक्षों पर प्रकाशित मेरे लेख में जैन दर्शन के पर्यावरणीय तत्वों को वैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर ही प्रमाणित किया है। छद्मस्थ प्रणीत आगमोत्तर साहित्य में जो कुछ भी लिखा है उसे पूर्ण रूपेण वैज्ञानिक मानना पूर्वाग्रह ही है। जैन साहित्य में इतना अधिक जैनेत्तर संक्रमण हो गया है कि जैन दर्शन के मूल तत्व ही कहीं जैसे खो गये हैं। बढ़ते क्रियाकांडों में तो जैन समाज की अनुकरणीय, प्रतिष्ठित आदर्श सदाचार की अस्मिता ही धूमिल हो गयी है। वर्तमान युग में यह महती आवश्यकता है कि संक्रमण के विकट जाल से जैन दर्शन के मूल तत्वों को ढूंढ कर प्रतिष्ठित किया जावे। 14.8.99
सूरजमल जैन 7- बी, तलबंडी, प्राइवेट सेक्टर,
कोटा
नवीनतम अर्हत् वचन पत्रिका मिली। बहुत परिश्रम किया है। मुखपृष्ठ पर छपे चित्र के नीचे छपा है 'केन्द्रीय म्यूजियम (कम्बोडिया) में पार्श्वनाथ की प्रतिमा'। इस पर मेरा विचार निम्न है -
शरीर विन्यास से यह तीर्थंकर मूर्ति नहीं लगती। हाथ पद्मासन की जैन निरूपित अवस्था में नहीं है, ध्यान से देखें। दोनों पंजों की अंगुलियाँ ही अग्रभाग को स्पर्श कर रही हैं, जिसके कारण भुजाएँ विशिष्ट प्रकार से फैल गई हैं। यह जैन परम्परा के अनुरूप नहीं है। हथेली पर हथेली होने की स्थिति में तीर्थंकर मूर्ति की भुजाएँ बगल के निकट आ जाती हैं।
ध्यान से ग्रीवा एवं मुख को देखें, तो वह भी विशेष प्रकार के लगते हैं। ऐसी तीर्थंकर मूर्तियाँ मैंने नहीं देखी हैं। सिर पर जो टोप धारण किया है वह बौद्ध मूर्तियों में मिलता है। यह मूर्ति किसी बुद्ध अवतार की लगती है।
सर्प फणावली द्योतक नहीं है कि यह पार्श्वनाथ की मूर्ति ही है। अन्य परम्पराओं में भी सर्प को महत्व दिया जाता है। मैंने कहीं पढ़ा था कि बौद्धों में भी नाग पूजक या नाग वंश हुआ है जो सर्प को महत्व देते हैं। मेरे विचार में यह मूर्ति जैन तीर्थंकर की नहीं है।
हमको पूर्ण साक्ष्य के अभाव में एकदम निष्कर्ष पर नहीं पहुँचना चाहिये। यह पुरातात्विक दोष होगा, जिसे जानकार विद्वान स्वीकृत नहीं करेंगे। ऐसी अवधारणाओं से प्रामाणिकता को
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अर्हत् वचन, अक्टूबर 99