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मत- अभिमत ___ आप जैसे उच्च कोटि के विद्वान और कुशल सम्पादक से आत्मीय साधार्मिक सम्बन्ध का होना मेरे विकास का प्रेरक है। प्रत्यक्षत: नहीं देखा है पर पत्र - पत्रिकाओं में बहुत पढ़ा और प्रभावित भी हुए हैं। आशा है आपस में कभी मिलना भी होगा। 'अर्हत् वचन' शोध पत्रिका वास्तव में प्रभावक, ठोस सामग्री लिये उच्च स्तरीय पत्रिका बन गई है। आपका श्रम, समय, शाक्ति और सोच की सार्थकता मुझे भी मेरे कर्म में सहयोग देगी, ऐसा मैं सोचती हूँ।
- मुमुक्षु डॉ. शान्ता जैन
सम्पादक - तुलसी प्रज्ञा जैन विश्व भारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय),
लाडनूं- 341306
"अर्हत् वचन" के जुलाई 99 के अंक में चयनित - प्रकाशित लेखों में जैन - दर्शन की विभिन्न अवधारणाओं - सिद्धान्तों को वैज्ञानिक आधार देने का जो प्रयास किया गया है, वह वर्तमान वैज्ञानिक युग के सन्दर्भ में सामयिक हैं, सराहनीय है। अर्हत् - वचन जैन दर्शन की वैज्ञानिकता प्रमाणित करने के प्रयास में निरन्तर प्रयत्नशील है जो प्रशंसनीय है। "जैन भूगोल, वैज्ञानिक सन्दर्भ' के लेखक श्री लालचन्द जैन "राकेश" ने लिखा है कि हमारे तीर्थंकरों / आचार्यों ने आत्मा की प्रयोगशाला में बैठकर जिन तथ्यों को प्रदिपादित किया वे विज्ञान की कसौटी पर खरे उतरे हैं। तीर्थकर, अर्हन्त भगवन्तों के सन्दर्भ में उनकी सर्वज्ञता, आत्मा की निर्मलता से चराचर जगत के पदार्थों की पर्यायों को समग्रता से ग्रहण करने की सक्षमता स्वीकार्य हो सकती है, यद्यपि इसमें भी जैन आचार्यों में यत्र-तत्र मतभेद दृष्टिगत् होते हैं। दिगम्बर परम्परा में अंतिम श्रुत केवली भद्रबाहु के पश्चात् द्वादशांग का विस्मरण स्वीकार किया है। गणधर द्वारा गुंथित द्वादशांग ही प्रमाणिक आगम है, जो उपलब्ध नहीं है। शेष सभी आगमोत्तर साहित्य छद्मस्थ गृहस्थों / आचार्यों द्वारा अत्यन्त न्यून स्मृति के आधार पर प्रणीत है। धरसेन आचार्य को अग्रायणी पूर्व के पांचवें वस्तु अधिकार के प्रकृति नामक चौथे प्राभूत का तथा गुणधर आचार्य को ज्ञान प्रवाद पूर्व के दसवें वस्तु अधिकार के तृतीय प्राभृत का ही ज्ञान था। वर्तमान में उपलब्ध जैन साहित्य विशद द्वादशांग की नगण्य स्मृति पर आधारित है। कई आचार्य ब्राह्मण परम्परा से आये और अपने पूर्ववर्ती संस्कारों, काल विशेष में प्रवर्तित परिवेश में तदनुसार साहित्य की रचना करते रहे।
अर्हत् - वचन के अप्रैल 99 के अंक में आचार्य गोपीलाल अमर ने तो अधिकांश आगमोत्तर साहित्य को गृहस्थों द्वारा रचित और भक्तिभाव के कारण आचार्यों को समर्पित करके लेखन का श्रेय उन्हें दिया गया माना है। वर्तमान में जैन समाज में धर्म के नाम पर क्रियाकांडों की भरमार है। जैन दर्शन मूलत: क्रियाकांड विरोधी है। अनेक क्रियाकांड जिनमें असंख्य जीवों की संकल्पी हिंसा निहित है, वैदिक - वैष्णव परम्पराओं के संक्रमण का ही परिणाम है। आधुनिक वैज्ञानिक युग में यह आवश्यक है कि प्रचलित सिद्धान्तों, अवधारणाओं की प्रयोगात्मक वैज्ञानिक प्रक्रिया से पुष्टि की जावे। अर्हत् - वचन के जुलाई 1999 के अंक में सभी लेखों में जिस प्रकार से वैज्ञानिक आधार तलाशने की जो खींचतान तोड़ - मरोड़ की गयी है, वह तर्क संगत नहीं लगती। जैन भूगोल का ही उदाहरण लें,
अर्हत् वचन, अक्टूबर 99