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________________ अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर टिप्पणी- 3 विद्यालय तीर्थ क्षेत्र आदि में लगाने योग्य पौधे ० सुरेश जैन मारौरा तीर्थ क्षेत्र, धार्मिक संस्थाओं, विद्यालय, शिक्षण प्रशिक्षण संस्थाओं के आस पास जहाँ सिंचाई उपलब्ध हो या न भी हो, वहाँ निम्न प्रकार के फल वृक्ष, शोभायमान पौधे एवं पुष्प लगाकर मनमोहक दृश्य त्पन्न कर सकते हैं, साथ ही पर्यावरण, वन उद्यानिकी एवं प्रक्षेत्र वानिकी की योजनाओं में क्रियान्वयन में सहयोग कर सकते हैं। वृक्षों का विभाजन आवश्यकता एवं कार्यरूपता के आधार पर वैज्ञानिकों ने कई प्रकार से किया है। तीर्थ क्षेत्रों एवं धार्मिक न्यासों पर इस प्रकार के पौधे लगाना उचित होगा। इन वृक्षों के नीचे तीर्थंकरों को केवलज्ञान प्राप्त हुआ था, दीक्षा कल्याणक, पंच कल्याणक, ननंदन वन और भक्तामर वन में भी इनका उल्लेख पाया जाता है। ऊँचे बढ़ने वाले एवं अधिक समय तक जीवित रहने वाले ( 50 वर्ष से अधिक उम्र वाले) जैसे आम, आंवला, बहेड़ा, वटवृक्ष, शालवृक्ष, देवदार, सिरस, तेंदू, पीपल आदि इन पौधों को 10 मीटर की दूरी पर 3 x 3 x 3 फुट आकार के गड्डे खोदकर उसमें 50 किलो गोबर की सड़ी हुई खाद तथा 300 ग्राम नीम की खली भरकर जुलाई अगस्त में पौधे लगायें आम, कटहल, आंवला को सिंचाई एवं विशेष देखरेख की आवश्यकता होगा। छोटे बढ़ने वाले एवं कम समय तक जीवित रहने वाले ( 25 से 40 वर्ष) जैसे नींबू, अमरूद, मौसम्मी, अनार, हरसिंगार ( स्यारी), अशोक वृक्ष, चम्पक वृक्ष, बेर, सीताफल आदि इन पौधों को 6 मीटर की दूरी पर 2 × 2 × 2 फुट आकार के मई में गड्डे खोदकर उसमें 30 किलो गोबर की सड़ी हुई खाद तथा 200 ग्राम नीम की खली भरकर जुलाई अगस्त में पौधे लगायें। मौसम्मी, अनार, अशोक, चम्पक आदि वृक्षों को विशेष देखरेख की आवश्यकता होगी। शोभायमान एवं मौसमी फूल एक मौसम में समाप्त होने वाले मौसमी फूलों को एवं शोभायमान गमलों, लकड़ी की पेटियाँ, बांस की टोकरियों, क्यारियों में लगा सकते हैं जैसे गेंदा, सूर्यमुखी, बालसम, जीनियां, क्रोटन, कोलियस, मोरपंखी, गुलाब आदि पौधों को रोग एवं कीड़ों से बचाने के लिये नीम की खली प्रत्येक गड्डे में गड्डे खोदते समय 100 से 300 ग्राम तक एवं वर्ष में दो बार गुडाई के समय 100 ग्राम प्रति गड्डा दें तथा नवम्बर एवं फरवरी माह में दो बार ) नीम की तेल 20 मि.लि. 15 लीटर पानी के साथ मिलाकर छिड़काव करने से पौधे निरोग रहेंगे। वृक्षों का वर्णन मिलता है। सड़कों, फल, फूल व छायादार वृक्षों का भगवान ऋषभदेव के शासन काल से अब तक वन उद्यानों में इन राजमागों, जनमार्गों के किनारों पर वृक्षारोपण की परम्परा चली आ रही है रोपण एक पुनीत कार्य माना जाता है। मुगल शासकों ने भी इसकी आवश्यकता को महसूस किया था। वर्तमान युग की जनसंख्या में विस्फोटक गति से वृद्धि हो रही है और दूसरी ओर औद्योगिक विकास भी तीव्र गति से हो रहा है। इसकी तुलना में वृक्षारोपण का कार्य बहु कम क्षेत्र में हो रहा है। शहरों, बस्तियों एवं आवासीय उपनगरों में औसत के अनुसार वृक्षारोपण न कर पाने के कारण वातावरण तेजी से प्रदूषित होता जा रहा है दूषित वातावरण से छुटकारा पाने हेतु योजनाकारों ने नये विकाशशील क्षेत्रों में सुन्दर हरित पट्टियां, मनमोहक वाटिकाओं, सड़क के किनारे पर वृक्षारोपण की ओर विशेष ध्यान देना शुरु कर दिया है। आदि पुराण, पद्म पुराण, पंचकल्याणक विष्णु पुराण, अभिज्ञान शाकुन्तल, रामायण, महाभारत, गीता आदि के अध्ययन से यह बात एकदम स्पष्ट हो जाती है कि हमारे पूर्वजों को शोभाकारी पेड़ पौधों से कितना लगाव था, इनके अलावा साधु सन्तों को भी इन पौधों को अपनी कुटियों, कुंजों के समीप उगाने के प्रमाण मिलते हैं। मानव और पृथ्वी पर पाये जाने वाले सभी जीव जन्तुओं को आक्सीजन की आवश्यकता होती है, जोकि उन्हें पेड़ पौधों से उपलब्ध होती है। दूसरे शब्दों में यह कहना भी उचित है कि पेड़ पौधे आक्सीजन बनाने के कारखाने हैं। आज के औद्योगीकरण के कारण वायु एवं जल प्रदूषित हो रहे हैं, जिसके कारण मानव " - अर्हत् वचन, अक्टूबर 99 67
SR No.526544
Book TitleArhat Vachan 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year1999
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size5 MB
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