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रूप में ही प्रचलित चली आ रही है। श्री शर्माजी को लगा कि इतनी बड़ी समस्या का चमत्कारिक समाधान एक जरा ही पुंडी के परिवर्धन से बड़ी सहजता और सरलता से संभव है और इसमें 'न सांप मरे और न लाठी टूटे' की उक्ति भली भांति चरितार्थ हो सकती है। अत: उन्होंने 'बोद्वे' के 'द्वे' में मिश्रित आटे 'व' के ऊपर एक और चमत्कारिक घुडी चढ़ाकर '' '' में परिवर्तित कर दिया और बड़ी सरलता और सहजता से पूरा शब्द 'बोद्वे' (VODVE) न रहकर 'वोद्धे' बन गया, रही बात 'व' और 'ब' की सो प्राचीन लिपिकारों में इन दोनों अक्षरों में कोई विशेष अन्तर नहीं माना जाता रहा फलत: 'वोद्वे' शब्द 'बोद्धे' में बदल जाने से किसी को कोई आपत्ति न रहेगी भले ही एक संस्कृति का अभ्युदय और दूसरी संस्कृति को क्षति पहुंचती रहे पर पूरे प्रतिमा लेख में छिपे आंतरिक जैन तथ्यों के प्रति श्री शर्मा जी की दृष्टि नहीं पहुंची।
नंद्यावर्त (डा. के.डी. वाजपेयी का पाठ मुनिसुव्रतस) श्राविका, गण, गच्छ शाखा आदि जैन अन्तर्साक्ष्यों के प्रति शर्माजी की दृष्टि ओझल ही रही, और यह जैन स्तूप बौद्ध स्तूप में निर्णायक रूप से घोषित कर दिया गया। इस भूल को विगत सात वर्षों में भी संशोधन नहीं किया जा सका।
इन गण - गच्छों के प्रचलन का बहुत पुराना जैन इतिहास विद्यमान है आचार्य अहली ने एक बार पुण्ड्रवर्धन पुर में समस्त श्रमण संघ के मुनियों के सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें सभी श्रमण सम्मिलित हुए, सम्मेलन के प्रारंभ से पूर्व आचार्य अर्हद्वलि ने पछा सभी मनिजन आ गये हैं? तो उत्तर मिला हम सब अपने गणों गच्छों सहित उपस्थित हो गये हैं। तब आचार्य श्री को आभास हुआ कि अब जैन धर्म विभिन्न वर्गों में ही बंटकर रह सकेगा अतः उन्होंने जो जहां से आये थे उनकी तदनुरूप संज्ञाए सुनिश्चित कर दी जैसे जो गुहाओं से आये थे उन्हें कुछ को 'नंदि' तथा कुछ को 'वीर' अंत संज्ञा दे दी, जो अशोक वाटिका से पधारे थे। उनमें से कुछ को 'अपराजित'
और कुछ को 'देव' अंत संज्ञा दे दी, जो पंच स्तूप से आये थे उन्हें पंचस्तूपान्वयी कहा उनमें से कुछ को 'सेन' और कुछ को 'भद्र' अंत संज्ञा दे दी इसी तरह विभिन्न संघों, गणों गच्छों और शाखाओं की स्थापना सुनिश्चित हो गई। विस्तार के लिए इन्द्रनंदी आचार्य के 'श्रुतावतार' ग्रंथ में 90 से 102 श्लोकों को देखा जा सकता है।
एक शब्द 'देव निर्मित' है जो हर तीर्थंकर के समोशरण की रचना देवाधिपति इन्द्र ही करता है. अत: यह देव निर्मित कहलाया। भगवान पार्श्वनाथ के समवशरण की मथुरा में रचना में हुई हो
और उसका ही अंश रूप यह स्तूप बाकी बचा रह गया हो और यह देवनिर्मित कहलाया जो सोने व रत्नों का देवों ने बनाया था। जिन्होंने इसका जीर्णोद्धार कराया उन तक को भी इसकी प्राचीनता का ज्ञान नहीं था, वप्पभट्टसरि ने भी मथुरा के जैन स्तूपों की चर्चा की है। इस तरह अकबर के शासन काल तक यहाँ जैन स्तूप बनते रहे। अकबर की टकसाल के प्रमुख अधिकारी कोलभटानिया (अलीगढ़) के साहु टोडर जब जम्बूस्वामी की निर्वाण स्थली के दर्शनार्थ पधारे तो यहाँ के दस-बीस नहीं, अपितु इन से अधिक जैन स्तूपों की जीर्ण दशा देखकर उन्हें बड़ा कष्ट हआ और उन्होंने उन सभी जीर्ण-शीर्ण स्तूपों का जीर्णोद्धार कराया तथा जैन पौराणिक कथा के अनुरूप कुल 514 जैन स्तूपों का निर्माण कराया। विस्तार के लिये अर्हत् वचन में प्रकाशित मेरा पुरस्कृत लेख देखें। यदि यह बौद्ध स्तुप है तो फिर इसे जैन साक्ष्यों में सम्मिलित कर लेने का भी कुछ तो कारण होना चाहिये।
इस तरह 'प्रतिमावो द्वे थूपे निर्मिते प्र.' (तिष्ठिता:) से ऐसा प्रतीत होता है कि दो जैन स्तूपों में दो जैन प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हुई हों, ऐसा मेरा अनुमान है कि इनके अतिरिक्त तीन स्तूप
और रहे होंगे जिन्हें कराल काल ने कबलित कर डाला अन्यथा यह 'पंच स्तूप' कहलाता रहा हो। इन सब तर्को और अकाट्य प्रमाणों से श्री शर्माजी सहमत होंगे और उस एक छोटी सी पुंडी का व्यामोह त्याग कर पिछले सौ वर्षों से चली आ रही 'वोद्वे' की कठिन समस्या के सरल समाधान 'बोद्धे ढूंढ लेने के आग्रह से विमुक्त होकर प्राचीन इतिहास और पुरातत्व को भ्रष्ट होने से बचा लेंगे।
* श्रुति कुटीर, 2/68, विश्वास रोड, युधिष्ठिर गली, शाहदरा,
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अर्हत् वचन, अक्टूबर 99