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________________ अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर प्रतिक्रिया देव निर्मित (वोद्वेथूभे) जैन स्तूप ■ कुन्दनलाल जैन 'तित्थयर' के अप्रैल-सितम्बर 1999 के महावीर विशेषांक में पृ. 109121 तक तथा ऋषभ सौरभ 1992 के पृ. 58 पर आदरणीय श्री डा. रमेशचन्दजी का विस्तृत आलेख 'मथुरा के जैन साक्ष्य' शीर्षक से पढ़ने को मिला लेख आधिकारिक प्रमाणों सहित अति उत्तम है तथा शोध परक एवं उच्च कोटि का है, नये शोधार्थियों को पर्याप्त जानकारियों से भरा पड़ा है पर एक जरा सी घुंडी ने दो ऐतिहासिक संस्कृतियों के ज्ञान में आमूल चूल परिवर्तन सा कर दिया है, जिससे पीड़ा हुई है और 'उद्बहुरिववामन' की उक्ति को चरितार्थ कर रहा हूँ। हो सकता है यह Slip of Pen हो या अनजाने ही द् में मिश्रित 'व्' पर धुंडी चढ़ गई हो और वह 'वो' शब्द 'बोद्ध' में परिवर्तित हो गया हो जो प्राचीन जैन स्तूप को प्राचीन बौद्ध स्तूप की सिद्धि में महान् ऐतिहासिक और पुरातात्विक भ्रान्ति का कारण बना, जो नहीं होना चाहिए था। इससे भावी शोधार्थी भ्रान्ति में फंस जायगें और गलत निर्णय अपनी भावी पीढ़ी को छोड़ जावेगें। सच्चाई यह है कि यह स्तूप वोद्वे (VODVE) नाम से ही प्राचीन पुराविदों में (भले ही वे भारतीय हों या पाश्चात्य विद्वान) विख्यात रहा है और प्राचीन ब्राह्मी की अल्पज्ञतावश ये इस 'वो' शब्द का खुलासा नहीं कर सके और वोद्रे वो ही प्रचलित रहा और इसके खुलासा समाधान की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया और इसके प्राचीन लिपिकाल तथा थूभे शब्द से ही संतुष्ट होते रहे। - चूंकि यह जैन स्तूप है अतः इसकी प्राचीनता तथा अन्य जैन जानकारियों के प्रचार प्रसार हेतु स्व. डा. कामता प्रसादजी ने अपनी 'अहिंसा वाणी' शीर्षक शोध पत्रिका के महावीर विशेषांक के लिए स्व. डा. के. डी. वाजपेयी सा. से इस स्तूप से संबंधित अच्छा शोध परक लेख मांगा तो स्व. संपादक महोदय ने उसे सहर्ष प्रकाशित कर दिया यह बहुत पुरानी बात है में चूंकि उपर्युक्त दोनों ही विद्वानों की शोधपरक प्रवृत्तियों से भली भांति परिचित रहा हूँ तथा दोनों के साक्षात् दर्शन भी किए हैं। मैं वाजपेयी सा. के बौद्वे शब्द की व्युत्पत्ति को जानने के लिए अति व्याकुल रहा अतः मैंने दिल्ली के तथा बाहर के मूर्धन्य पुरातत्वविदों और खासकर प्राचीन ब्राह्मीलिपि विशेषज्ञों से संपर्क साधा और 'बोद्वे' शब्द के विषय में चर्चा एवं विशद विचार विमर्श किया पर सभी का कहना हुआ कि प्रतिमा लेख की मूल छाप ( फोटो प्रति) देखे बिना कोई निश्चित निर्णय नहीं किया जा सकता। फलतः वाजपेयी सा. के लेख की फोटो प्रतिलिपि मंगवाई उसमें वह छाप भी विद्यमान थी। मैंने आनन फानन उस छाप की फोटो प्रति सभी विद्वानों को भेजी। फलतः कुछ तो मौन रह गये पर डा. कृष्ण देवजी तथा श्री बहादुरचंद्रजी छाबडा प्रभृति मूर्धन्य प्राचीन ब्राह्मी लिपि विशेषज्ञों ने बताया कि 'वोद्वे' जैसा शब्द कोई स्पष्ट नहीं पढ़ा जाता अपितु 'द्वे' बिल्कुल स्पष्ट और साफ पढ़ा जाता है तथा 'वो' का झुकाव प्रतिमा की तरफ पढ़ा जाता है अतः स्पष्ट पाठ प्रतिमावो द्वे भे प्रतीत होता है। मुझे कुछ शान्ति हुई, कुछ दिनों बाद अचानक स्व. श्री उमाकान्त प्रेमानन्द शाह का आलेख कहीं पढ़ने को मिल गया और उसमें उपर्युक्त पाठ देखकर पूर्ण शान्ति प्राप्त हुई। इस पर सारे नोट्स जो अब तक छितरे बिखरे पड़े थे उन्हें भली भांति संभालकर इस 'वोद्वे' पर लेख लिखकर पाठकों को आश्चर्य चकित करना चाहता था पर दुर्भाग्य कि अस्वस्थता वश वह कार्य रूका सो रूका ही रहा। अब श्री शर्मा जी का उससे संबंधित लेख देखा तो भूचाल सा दिमाग में आया, मैंने शर्माजी को व्यक्तिगत पत्र भी लिखा। संभवतः इस पर अजमेर संगोष्ठी में भी चर्चा हुई होगी और स्मारिका छपने की तैयारी हो रही होगी अतः पू. उपाध्याय ज्ञानसागरजी महाराज को यथार्थ स्थिति से अवगत कराया साथ ही संशय निवारण हेतु 'अर्हत् वचन' पत्रिका को यह लेख भेज रहा यह समस्या जब से मथुरा के कंकाली टीले से खुदाई में प्राप्त लेख से अब तक 'वोद्वे' अर्हत् वचन, अक्टूबर 99 - - 61
SR No.526544
Book TitleArhat Vachan 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year1999
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size5 MB
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