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________________ परिशिष्ट - 1 तित्थयर (अप्रैल-सितम्बर 1999) में पृ. 114 - 115 पर प्रकाशित डॉ. रमेशचन्द शर्मा के लेख 'मथुरा के जैन साक्ष्य' का अंश एक ही मूल स्तूप था। कालान्तर में उनकी संख्या 5 हुई। तदन्तर छोटे - मोटे 527 स्तूप बन गये जिनकी पूजा 17 वीं शताब्दी तक होती रही। 1583 ई. में साहु टोडर द्वारा 514 स्तूपों की प्रतिष्ठा की गई। इसके पूर्व आचार्य बप्पभट्टिसरि 9वीं शती में ही एक पार्श्व जिनालय स्थापित कर चुके थे और एक महावीर बिम्ब भी भेजा था। सब पुण्य कार्य देवनिर्मित स्तूप (कंकाल) या चौरासी के आस - पास ही सम्पन्न हुए होंगे। प्राचीनतम स्थान : साहित्य तथा अनुश्रुतियों के आधार पर इस स्थल की प्राचीनता सिद्ध करना संभव नहीं है। किन्तु पुरातत्व ने इस दिशा में हमारा मार्गदर्शन किया है। उल्खनन से प्राप्त कुषाण कालीन एक मूर्ति की पीठ (लखनऊ जे. 20) पर उत्कीर्ण लेख में इसे देव निर्मित बौद्ध स्तूप बताया है, इस महत्त्वपूर्ण मूर्तिलेख को उद्धृत करना आवश्यक है : पंक्ति 1 ...सं. 9 व 4 दि 20 एतस्यां पूर्वायां कोटटिये गणे वैरायां शाखाय। पंक्ति 2 ...को अय वृधहस्ति अरहतो नन्दि (अ) वर्तस प्रतिमं निर्वर्तथति। पंक्ति 3 नीचे ....भार्यये श्राविकाये (दिनाये) दानं प्रतिमा बौद्धे थूपे देव निर्मित प्र .... || अर्थात् वर्ष 79 की वर्षा ऋतु के चतुर्थ मास के बीसवें दिन कोटिय गण की वैर शाखा के आचार्य वृद्धहस्ति ने अर्हत् नद्यावर्त की प्रतिमा का निर्माण कराया और उन्हीं के आदेश से भार्या श्राविका दिना द्वारा यह प्रतिमा देव निर्मित बौद्ध स्तूप में दान स्वरूप प्रतिष्ठापित हुई। प्रो. कृष्णदत्त बाजपेयी नन्द्यावर्त के स्थान पर मुनिसुव्रतस पढ़ते हैं। विचार - विमर्श में डॉ. उमाकान्त प्रेमानन्द शाह ने मत व्यक्त किया कि लेख को 'प्रतिमावो द्वे थपे निर्मिते' पढ़ा जाना चाहिये। तदनुसार प्रतिमा तथा दो स्तूपों का निर्माण हुआ। कुषाण संवत् में इन्हें उत्कीर्ण मानने पर मूर्ति का समय 157 ई. आ जाता है। यदि यह काल गणना किसी अन्य संवत् में है तो मूर्ति और प्राचीन मानी जा सकती है। विद्वानों का अनुमान है कि "इसे देवनिर्मित बताने का तात्पर्य यह है कि पहली - दूसरी शताब्दी ई. में ही यह स्थान इतना प्राचीन माना जाता था कि इसके निर्माण का इतिहास विस्मृत हो चुका था। अत: इसे देवताओं की कृति माना जाने लगा।" उपर्युक्त अनेक साहित्यिक सन्दर्भो के प्रकाश में इस निष्कर्ष पर सरलता से पहुँचा जा सकता है कि मूर्ति के अभिलेख में वर्णित देवनिर्मित स्तूप वही है जिसे देवी कुबेरा ने स्थापित किया था। तीर्थकल्प ग्रन्थ में यह भी उल्लेख है कि पार्श्वनाथजी के समय मूल सुवर्ण स्तूप पर ईंटों की परिधि बनवाई गई तथा बाहर पत्थर का एक मन्दिर बना। डॉ. उमाकान्त शाह का मत है कि देवनिर्मित स्तूप पार्श्वनाथ जिन की स्मृति में ही मूलत: बना होगा। जिनप्रभस लिखा है।कंकाली से प्राप्त अवशेषों में पार्श्वनाथ की मूर्तियाँ ही अधिक हैं। किन्तु हमें यह मत मान्य नहीं है कि क्योंकि अन्य लेखकों ने भी इसे सुपार्श्व का स्तूप माना है अत: सभी भ्रान्त नहीं हो सकते। पार्श्वनाथजी महावीरजी के पूर्ववर्ती थे और उनका समय 900 ई. पूर्व आसपास का माना जाता है। जिस देवनिर्मित स्तूप का पुनःनिर्माण 900 ई. से पूर्व के आसपास हुआ हो वो कम से कम 100 या 200 वर्ष पुराना अवश्य रहा होगा। इस प्रकार साहित्य तथा पुरातत्व के समन्वित अध्ययन का सारांश यह है कि काली टीले पर स्थित देव निर्मित स्तूप की रचना का आरम्भ किसी न किसी रूप में अब से लगभग 3000 वर्ष पहले हो चुका था और यथासमय उसके स्वरूप का परिवर्तन होता रहा। अत: निश्चय ही मथुरा का देव निर्मित स्तूप भारत का प्राचीनतम स्मारक था। इस तथ्य से देशी तथा विदेशी सभी विद्वानों ने सहमति प्रकट की है। अत: भारतीय पुरातत्व में कंकाली टीले के जैन स्तुप का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। अर्हत् वचन, अक्टूबर 99
SR No.526544
Book TitleArhat Vachan 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year1999
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size5 MB
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