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निदर्शन हैं। तीर्थंकरों के जन्म से पूर्व उनकी माताओं द्वारा देखे गये सोलह स्वप्न पश जगत एवं प्राकृतिक जगत से सम्बन्धित हैं। तीर्थंकरों के गर्भ में आने के छ: माह पूर्व से ही पर्यावरण की उत्कृष्टता दृष्टिगोचर होने लगती थी। रत्नों की वर्षा, सुवृष्टि, मंदबयार, भरपूर फसल - प्रकृति का समस्त परिवेश, मानो प्रकृति पुत्र के जन्म पर उत्सव मनाती थी। समवसरण के समय तीर्थंकरों के पास के सौ योजन भूमि के घेरे में रहने वाले जीवों को सुख सम्पन्नता छाने लगती थी। समवसरण की रचना अपने में प्रकृति प्रेम, मैत्री, समन्वय एवं सद्भाव का प्रतीक है। समवसरण सभा में अशोक, सप्तवर्ण, चम्पक और आमग्र वृक्षों का वर्णन प्राप्त होता है। समवसरण के कोठे में प्रत्येक जीव का स्थान निर्धारित है तथा प्राणी मात्र को तीर्थकर की दिव्य ध्वनि सुनने का अधिकार है।
तीर्थंकरों की प्रतिमाओं पर अंकित चिन्ह पर्यावरण संरक्षण चेतना के संवाहक हैं। चौबीस तीर्थकरों के चौबीस चिन्हों में से तेरह चिन्ह प्राणी जगत से सम्बद्ध हैं। बैल, हाथी, घोड़ा, बन्दर, हिरण एवं बकरा पशु जगत से सम्बन्धित है। चकवा पक्षी समूह का तथा कल्पवृक्ष वनस्पति जगत का प्रतीक है। जलचर मगर, मछली, कछुआ, शंख का जल शुद्धि में उल्लेखनीय योगदान है। लाल और नीलकमल अपने अप्रतिम सौन्दर्य और सौकुमार्य से 'सत्यं शिवं सुन्दरम' की उदघोषणा करते प्रतीत होते हैं। स्वस्तिक एवं कलश प्राणी मात्र के मंगल क्षेम के प्रतीक हैं।
तीर्थंकरों के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाएँ जीव दया के मनोहारी उदाहरण हैं। कुमार पार्श्व का जलती आग से नाग - नागिन के जोड़े को निकालकर उनकी प्राण रक्षा करना, बन्दीगृह में बन्द पशुओं के चीत्कार को सुनकर नेमिकुमार का विवाह का कंगन तोड़कर दीक्षा ले लेना, सर्प के काटने पर भी महावीर का क्षमा भाव धारण करना, जैसी घटनाएँ जैन तीर्थकरों की पर्यावरण संरक्षण की उत्कट भावना को ही प्रदर्शित करती है।
जैन श्रावक की दिनचर्या, उसके षट्कर्मों का विवेचन भी पर्यावरण रक्षा के सिद्धान्तों के अनुरुप है। रात्रि भोजन त्याग, जल गालन विधि, सामायिक श्रावक के ये सभी आचरण पर्यावरण रक्षा की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। नित्य स्तुत्य आलोचना पाठ, शान्ति पाठ, सामायिक पाठ की तो प्रत्येक पंक्ति पर्यावरण रक्षा का अमर संदेश देती है। जैन श्रावक शान्ति पाठ की निम्न पंक्तियों में सुखमय एवं संतुलित पर्यावरण की कामना करता है।
'होवे सारी प्रजा को सुख, बलयुत हो धर्मधारी नरेशा, होवे वर्षा समय पै तिल भर न रहे व्याधियों का अन्देशा।
होवे चोरी न जारी सुसमय वरतै हो न दुष्काल भारी,
सारे ही देश धारै जिनवर वृष को जो सदा सौख्यकारी। आलोचना पाठ पर्यावरण रक्षा में अपने प्रमाद के प्रति दुखी व्यक्ति का आन्तरिक पश्चाताप है। अपराधी श्रावक खुले हृदय से प्रकृति के विभिन्न अवयवों - पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि के प्रति कये गये अपने अपराधों के लिये क्षमायाचना करता है -
पृथ्वी बहु खोद कराई, महलादिक जाँगा चिनाई। पुनि बिन गाल्यो जल ढोल्यो, पंखारौं पवन विलोल्यो।
हा हा परमाद बसाई, बिन देखे अगनि जलाई। तामधि जे जीव जु आये, ते हूँ परलोक सिधाये॥ जल मल मोरिन गिरवायो, कृमिकुल बहु घात करायो। नदियन बिच चीर धुवाये. कोसन के जीव मराये।
अहेत् वचन, अक्टूबर 99