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वस्तु में एक ही समय अनेक विरोधी धर्मों, गुणों, स्वभावों एवं पर्यायों का समावेश हो जाता है। जिससे वह वस्तु का अस्तित्व सिद्ध कर सकता है। एक की प्रमुखता से दूसरे की गौणता एक के भाव या स्वभाव से दूसरे के विभाव का बोध भी हो जाता है। जब तक वस्तु के एक स्वरूप की अपेक्षा दूसरे की उपस्थिति नहीं होगी तब तक वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन नहीं हो सकता। वस्तु के अस्तित्व की सिद्धि भी नहीं हो सकती, हमारा लौकिक व्यवहार, सामाजिक विकास, उसकी गतिविधियाँ आदि परस्पर के संबंधों पर टिकी हुई है। इसी तरह के दृष्टिकोण से पर्यावरण की सृष्टि को भी बल मिला हुआ है। पर्यावरण की सृष्टि कैसे? -
जो कुछ भी हमें दिखाई दे रहा है, वह प्रकृति का सौंदर्ययुक्त वातावरण है, जिसके आधार पर सभी टिके हुए हैं। जो कुछ भी हमारे अनुभव में आ रहा है या जिन तत्वों का हम अनुभव कर रहे हैं, वे ही तत्व पर्यावरण की रचना करते हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व वनस्पति ये पाँच स्थावर जीव हैं। इन पाँचों के कारण कीट - पतंगे, पश-पक्षी एवं मनुष्य आदि का स्थान बना हआ है, इनके बिना कोई भी जीवित नहीं रह सकता। इनकी मुख्यता जब तक बनी रहेगी तब तक पर्यावरण की सृष्टि गतिशील बनी रहेगी। भौतिक जगत् की क्रियाएँ गतिशील बनी रहेगी। भौतिक जगत् की क्रियाएँ भी विद्यमान रहेगी। जैसे ही पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, पेड़- पौधे आदि का अस्तित्व प्रदूषण के कारण प्रभावित होगा तो उससे प्रत्येक जीवधारी के जीवन पर भी प्रभाव पड़ेगा। पर्यावरण की सृष्टि में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों ही कारक जब तक विद्यमान रहते है, तब तक पदार्थ, दशाएँ, उनका बल जीवन और समय सभी कारक क्रियात्मक रूप को लिए हुए प्रकृति को अनुकूल बनाए रहेंगे।
प्रकृति के संसाधनों में समरसता होने पर सौम्यता, सुंदरता आदि बनी रहेगी, इससे प्राणी मात्र को यथेष्ठ शक्ति मिलेगी। जीवन के लिए स्वाभाविक व अनुकूल संसाधन भी मिलेंगे। संपूर्ण जीव सृष्टि के लिए सभी तरह की सामग्रियाँ पृथ्वी मंडल से प्राप्त होती है। समग्र जीवनदान देने वाली वनस्पतियाँ हैं, जल, अग्नि एवं वायु भी इनमें विशेष योगदान देती हैं। आधुनिक दृष्टि से इन पर विचार करते हैं तो यही कहने में आता है कि आज मानसिक प्रदूषण एवं प्राकृतिक प्रदूषण दोनों की विषमता के रूप को लिए हुए है। आज की स्थिति इन दोनों ही कारणों से स्पष्ट हो जाती है। भविष्य का वातावरण इन्हीं से सुरक्षित हो सकता है। इसके लिए हमें अनेकांत की सूझबूझ पर ध्यान देना होगा। जिसमें यही कथन किया गया है कि अनेक धर्म, अनेक समूह, सह - अस्तित्व, समभाव आदि वर्ग भेद को मिटा सकता है। प्रकृति और मनुष्य -
हमारे सूत्रग्रंथों में स्पष्ट संकेत किया है कि जितने भी प्रकृति के साधन है, वे सभी प्राणीमात्र के साधन हैं, पेड़ जो वायु का संचार करते है, उन्हें मनुष्य ग्रहण करता है तथा मनुष्य जो वायु छोड़ता है उसे पेड़-पौधे ग्रहण करते हैं। अर्थात् एक दसरे के बिना किसी का भी काम नहीं चल सकता।
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अर्हत् वचन, अक्टूबर 99