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________________ वर्ष - 11, अंक - 4, अक्टूबर - 99, 37 - 39 ( अर्हत् वचन । (कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर) अनेकांत की दृष्टि और पर्यावरण की सृष्टि - उदयचंद्र जैन * अनेकांत की दृष्टि सह-अस्तित्व, समभाव, समन्वय एवं प्राणी मात्र के संरक्षण के सिद्धांत का प्रतिपादन करती है। विश्व के क्षितिज पर अनेक राष्ट्र है, राष्ट्र के समूह का नाम विश्व है। सामान्य की दृष्टि से इनमें एकत्व का समावेश है और विभिन्न राष्ट्रों की अपेक्षा अनेकत्व समाया हुआ है। प्रत्येक राष्ट्र का एक ही उद्देश्य होता है, उसका एक ही विचार होता है फिर भी उसमें भेद - अभेद, संघर्ष, समन्वय, धार्मिकता, अधार्मिकता, भक्षता - अभक्षता आदि सभी अनेकांत की दृष्टि को इंगित करते हैं। सभी एक दूसरे को समाप्त करना चाहते हैं। ऐसा ही नहीं, अपितु सभी एक दूसरे को जीवनदान भी देना चाहते हैं क्योंकि सभी अपने - अपने गुणों के कारण रहते हैं, संरक्षण प्राप्त करते हैं। इनके इस अधिकार को छीनना उचित नहीं है। यह राष्ट्र धर्म भी नहीं है। यदि ऐसा किया जाता है तो किसी भी राष्ट्र का न्याय या सत्य प्रमाणित नहीं कहा जाएगा। यदि कोई राष्ट्र किसी का घातक बनता है तो उसका भी कोई दूसरा घातक हो सकता है। अनेकांत की दृष्टि में अहिंसात्मक उपाय है न्याय, तर्क एवं सत्य का सिद्धान्त। इसमें प्राणीमात्र के लिए संरक्षण है। यदि यह कहा जाए कि अनेकान्त की दृष्टि में विश्व विकास एवं राष्ट्रीय उन्नति का सर्वश्रेष्ठ आदर्श छिपा हुआ है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसमें मानवीय मूल्यों की स्थापना पर विशेष बल दिया गया है, इसकी विचारधारा में प्राणीमात्र के प्रति समभाव का दृष्टिकोण हैं। यह एक ऐसा विचारात्मक गुरु है, जो सबकी सोचता है, सबकी सुनता है, गुत्थी सुलझाता है, ग्रंथि खोलता है, वैमनस्य तोड़ता है और एक दूसरे को जोड़ता है। यही इसकी प्रमुख सामाजिक भूमिका है तथा पर्यावरण की सृष्टि के लिए दिशा निर्देश है। इसकी दृष्टि में इस प्रकार की सृष्टि है - 'सव्वं जगं तू समयाणुपेही, पियमप्पियं कस्स वि नो करेज्जा' (सूत्रकृतांग 1/10/6) अर्थात् संपूर्ण विश्व के प्रति समभाव की दृष्टि है, वह न किसी का प्रिय करता है एवं न किसी का अप्रिय करता है। अनेकांत क्या है? इस पर विविध प्रकार से चिंतन किया गया। दार्शनिकों ने अनेक धर्मों से युक्त वस्तु का विवेचन करके यह सिद्ध किया कि अनेकांत तत - अतत्, एक - अनेक, सत् - असत्, नित्य - अनित्य, सामान्य - विशेष, भाज्य- विभाज्य, भेद - अभेद, भाजन - विभाजन, अवयव - अवयवी आदि रूप है। यह दो विरोधी शक्तियों का उद्घाटन करता है। अनेकांत के स्वरूप से यह बात सिद्ध हो जाती है - 'अनेके अंता धर्माः, सामान्य - विशेष - पर्याया गुणा यस्येति सिद्धोऽनेकान्त:' (न्याय दीपिका 3/76) अर्थात् अनेकान्त में सामान्य, विशेष, पर्याय या गुणरूप, अनेक अंत या धर्म पाए जाते हैं। अनेकान्त में एक ही समय में एक ही स्थान पर प्रतिपक्षी अनेक धर्मों की प्ररूपणा की जाती है। जो अविरूद्ध होती है, उसी वस्तु का वचन - व्यवहार से भी अनेक रूपों में प्रतिपादन किया जाता है क्योंकि एक ही वस्तु में युगपदवृत्ति पाई जाती है। अर्थात् * रीडर - प्राकृत एवं जैन विद्या विभाग, मोहनलाल सुखाड़िया वि.वि., उदयपुर। निवास - पिऊ कुंज, अरविन्द नगर, उदयपुर (राज.)
SR No.526544
Book TitleArhat Vachan 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year1999
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size5 MB
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