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(ग) डॉ. परमेश्वरीलाल गुप्त संपादित 'प्राचीन भारत के प्रमुख अभिलेख, भाग - 1' में पृ. 147 में आया कि - 'कस्स गुषणवंज्ञसंवर्धक ...........सत्रपस......10 ...... समं सदभवतु.....11.....12.....।' टीप - डॉ. मिराशी ने तो महरात समपोको कुषाणवंशीय संवत् को चलाने वाली माना है। अत: वह संवत् भी B.C. ही जान पड़ता है।
पृष्ठ 199 2र शक नृप रुद्रदामन का लेख आया है। उसके पंक्ति 12 में - 'वीरशब्दजा(तो)त्सेकाविधेयानां यौधेयानां ....... दक्षिणापथपतैः सप्तकर्णेरिपि निर्व्याजमवजीत्य संबंधाविदरतया अनुसादनात ........।' यह संबंध एक कुटुम्ब का भी हो सकता है। डॉ. विद्या दहेजा 'संबंधाविदूर' का तात्पर्य जामाता से मानने को तैयार नहीं है। इसी लेख में शकों को यौधेम भी कहा है। लेख नं. 42 के टिप्पण में डॉ. परमेश्वरीलाल गुप्त लिखते हैं कि - 'ये सारे कार्य ऐसे हैं जो ब्राह्मण धर्मावलम्बी ही कर सकते हैं।'
लेख क्र. 47 में आये कुल संवत् के लिये डा. गुप्त ने लिखा है - 'मालव संवत् को ही कृत संवत् कहते हैं। विक्रम संवत् ही मालव संवत् था। अत: वह विक्रम संवत् का ही मूल नाम है। ............ किन्तु, उसे कृत क्यों कहते हैं? इसका समुचित समाधान अभी तक नहीं हो पाया है। टीप - मालव संवत् जनताकृत होने से ही इसे कृत संवत् कहा होगा। 5. नाणी लेख (क) सराक जि. अकोला (महाराष्ट्र) तथा पेंडा बंकूर (आंध्र) में मिले कुछ सिक्कों पर 'सक सदस', 'सक सातकणिस', 'रजो सिरि सक सातकणिस' तथा (ख) 'रजो सिरि सगमाण महसस' वा 'रजो सग मान महसस' या कोंडापुर में मिले कुछ सिक्कों पर 'सगमान चुटकुलस' वा 'महासेनापतिस महरजसतस सगमान चटकलस' जैसे लेख मिले हैं।
इस सिक्कों की दूसरी बाजू पर उज्जैनी चिन्ह भी है। या कों का चिन्ह - हाथी, टेकड़ी, नदी, बार भी नाये जाते हैं। ऐसे ही अकोल में प्राप्त कुछ सिक्कों पर इन शक चिन्हों के साथ 'सिरि सदवहन', 'रजो जिसरिसदवहनस' का लेख भी मिला है। और डॉ. वि. भा. कालते इसका काल भी B.C. (इ.स.पूर्व) 2 रा शतक मानते हैं। (म.ता.शि. 209) 6. विवाह संबंध (क) विक्रमादित्य कादंबरी में लिखा है कि - 'हनेंदु देवी इस शक कन्या का विवाह विक्रम (सातकर्णी) से हुआ था।' (ख) डॉ. मिराशी शिलालेख कृ. 25 के अनुसार लिखते हैं कि - 'वाशिठीपुत्र सातकर्णि की पट्टराणी कार्दमक शक कन्या थी।'
इस विवेचन से सिद्ध होता है कि शक तथा सातवाहन का कुल एक ही है।
प्राप्त - 29.6.98
अर्हत् वचन, अक्टूबर 99