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________________ यथा - अकलक चरित्र - (शक 700) विक्रमार्क शकाब्दीय शतसप्त प्रभाजुषि। कानेड कबंकयतिनो बौद्धर्वादो महानभूत्। 2.6 धवल प्रशस्ति - (शक 738) - अठतिसम्मि सतसये विक्कमरायंदिये स सगनामे। 2.7 पंच संग्रह प्रशस्ति - (वि. सं. 1073) - "त्रिसप्तत्याधिकेद्वानां सहस्र शक विद्विषः।.... टीप - इस लेख से ऐसा लगता है कि शक और सातवाहनों में आगे परस्पर विरोध हो गया था। 3. हिन्दू पुराण (क) एतरेय ब्राह्मण - सातवाहन की गणना पुण्ड्र, शबर, पुलिंद आदि नीच जाति में की है। (ख) वायु पुराण - 'शक मानोऽभवद्राजा महिषाणांमहिपतिः।' अर्थ - मान नाम का शकराजा महिषक का अधिपति हुआ। गुंटुपल्ली अभिलेख (प. गुप्त न. 13) में लिखा है कि - 'महरजस कलिंगाधिपति, मंहिषकाधिपतिस, महालेखवाहनस सिरिसदस ..........।' इससे कलिंगाधिपति महामेघवाहन, महिषकाधिपति शक तथा श्री सातकर्णि, ये एक ही कुल के थे, इसकी पुष्टि होती है। टीप - हिन्दू पुराणों में यह भी देखना जरूरी है कि शक तथा सातवाहन राजाओं की सूची एकत्र ही दी है या अलग तथा शक नृप मान का उल्लेख जो वायु पुराण में आया है, वह कौन से वंश में है। धवल पुस्तक -1, पृ. 24 पर पं. सिद्धान्तशास्त्री फूलचन्दजी लिखते हैं कि - "हिन्दू पुराणों में अनेक स्थानों पर दो राजवंशों का काल एक ही वंश के साथ दे दिया है।' 4. शिलालेख (क) डॉ. मिराशी द्वारा सम्पादित 'सा. आथि प.अ. यांचे को लेखा' , इस किताब के क्र. 30 व 31 में 'सकसेनस' (स क स + इ न स) ऐसी संधि पायी जाती है। तथा क्र. 40 - 'सिधं। रजो शहरातस नहपानस जामातु दिनीक पुत्रस, शकस उसवादातस ..........।' ऐसा उल्लेख मिलता है। प्रश्न - डॉ. मिराशी तो प्राकृत में संधि मानते ही नहीं थे, तो क्या आपको शिलालेखों में और कहीं संधिपद दिखे हैं? उत्तर - पुलुमावि के वर्ष 19 वाले लेख में कुकुरापरांत, धमोपाजित, खमाहिंसा (समा + अहिंसा), णियमोपवास आदि संधिपद पाये जाते हैं। (ख) डॉ. वि. भि. कोलते संपादित 'महाराष्ट्रील काही ताम्रपट व शिलालेख' के पृष्ठ 154 - 'ए सव शक वर्ष ममानिसी विक्रम वर्ष में द...........।' (इन सभी को शक वर्ष मानने पर भी विक्रम वर्ष मानना चाहिये।) पृष्ठ 307 - 'कवर्ष कालातीत संवत्सरेषु .......सालिवाह 12991' पृष्ठ 387 - 'शालिवाहन शके 1722 .........।' आदि उल्लेख है। शालिवाहन शक का उल्लेख तो दक्षिण भारत के अनेक जैन शिलालेखों में है, जो अभी रूढ़ ही है। 'शकनृप कालातीत' यह रूप 'मृते विक्रमराजनि' का ही जान पड़ता है। क्योंकि वह एक ही अर्थ का बोधक है। अर्हत् वचन, अक्टूबर 99 35
SR No.526544
Book TitleArhat Vachan 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year1999
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size5 MB
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