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________________ वर्ष - 11, अंक-4, अक्टूबर - 99, 25 - 28 1 अर्हत् वचन । ( (कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर) जैन संस्कृति का मोहन जोदड़ों : पारागढ़ लखन लाल खरे* प्रत्येक बुद्धिजीवी जानता है कि राष्ट्रीय इतिहास में हड़प्पा और मोहनजोदड़ों का महत्व क्या और क्यों है। विद्वानों ने मोहन जोदड़ों का अर्थ मुर्दो का टीला बताया है।' मुर्दो का टीला - जहां उन्नत सभ्यता एवं संस्कृति का इतिहास मुर्दो की तरह टीलों में दफन है। समूचे देश में पता नहीं कितने स्थल मोहन-जोदड़ों के रूप में हैं, जो उत्खनन, अध्ययन व संरक्षण हेतु प्रतीक्षारत हैं। पारागढ़ - एक ऐसा ही स्थल है, जिसके सम्बन्ध में बुद्धिजीवी मौन हैं, पुराविद् अनभिज्ञता प्रकट करते हैं तथा जिज्ञासु अनुसंधित्सु "गोलाकोट" जैसी घटनाओं के कारण संदिग्ध माने जाने के भय से विवश हैं। पारागढ़ को शिवपुरी जिले का मोहन - जोदड़ों कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी, जहां कभी जैन संस्कृति अपनी चरम अवस्था में रही होगी। पारागढ़, म. प्र. के शिवपुरी जिले की कोलारस तहसील का ऊजड़, किन्तु महत्वपूर्ण स्थल है। कोलारस से 9 कि.मी. पूर्व की ओर करधई के बीहड़ वन में स्थित भग्न किला व भूलुंठित बस्ती। किलों के भीतर सामान्यत: राजा की धार्मिक मान्यतानुसार उपासना गृह व प्रतिमाएँ निर्मित हुआ करती थीं। पारागढ़ किले के भीतर भी जैन मन्दिरों की पूरी श्रृंखला थी, जिनमें से आज भी लगभग 17 भग्न मठनुमा मंदिरों के अवशेष विद्यमान हैं। इनमें कम से कम सात - आठ खण्डित नयनाभिराम प्रतिमाएँ अब भी प्रकृति की मार झेलती खड़ी हैं। यत्र - तत्र शताधिक छोटी - बड़ी प्रतिमाएँ, चरण - चौकियाँ, तोरण द्वार व तत्सम्बन्धी मूर्तियाँ बिखरी पड़ी हैं। इससे सिद्ध होता है कि यहाँ किसी जैन मतावलम्बी राजा का शासन रहा होगा। किंवदन्ती है कि पाड़ाशाह नामक पाड़ों के एक धर्मप्रेमी व्यवसायी का यह दृढ़ नियम था कि वह प्रतिदिन जब तक एक नवीन मूर्ति का निर्माण कार्य प्रारम्भ नहीं करवाता था, अन्न-जल ग्रहण नहीं करता था। इस तरह उसने अपने जीवन में करोड़ों छोटी-बड़ी जैन प्रतिमाओं का निर्माण करवाया और उन्हें समूचे अंचल में प्रतिष्ठित करवाया। यह शोध का विषय है कि तथाकथित पाड़ाशाह नामक व्यवसायी कहीं पाड़ागढ़ (अपभ्रंश - पारागढ़) का नरेश तो नहीं था जिसका नाम पारसचन्द या ऐसा ही कुछ हो और अपने नाम पर उसने पारसगढ़ का निर्माण कराया हो? मेरी इस मान्यता का आधार किले के भीतर जैन मठों व मूर्तियों की स्थापना है। कोलारस के चन्द्रप्रभु दि. जैन मन्दिर में 9 वीं, 10 वीं शताब्दी की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हैं एवं एक अपठित शिलालेख है। लोगों की मान्यता है कि पारागढ़ पर विदेशी आक्रमणकारियों के कारण सारी बस्ती वहाँ से उजड़ गयी और कविलासपुर नामक नगर की स्थापना की। यही कविलासपुर अपभ्रंश होकर कोलारस कहलाया। बताते हैं कि चन्द्रप्रभु दि. जैन मन्दिर में स्थापित प्रतिमाएँ पारागढ़ की ही हैं। प्रश्न है, पारागढ़ से समस्त प्रतिमाएँ क्यों नहीं लाई गयीं? यह सम्भव प्रतीत नहीं होता कि कुछ मूर्तियों को लाया जाये और उनसे संख्या में अधिक प्रतिमाओं को आततायियों के कहर का ग्रास बनने छोड़ दिया जाये। फिर भी, पारागढ़ एवं कोलारस में कुछ तो सम्बन्ध है। __पारागढ़ जिले के भीतरी प्रवेश द्वार के पास ठीक बांई ओर शनि मन्दिर है जिसके * सहायक प्राध्यापक-हिन्दी, शासकीय महाविद्यालय, कोलारस (शिवपुरी)
SR No.526544
Book TitleArhat Vachan 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year1999
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size5 MB
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