SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गर्भ गृह में तथाकथित शनिदेव की मूर्ति स्थापित है। गर्भद्वार के बाईं ओर विशाल जरायुयुक्त शिवलिंग है। मन्दिर की बाह्य मुख्य दीवार पर विभिन्न आकृतियां व प्रतिमाएँ शिल्पांकित हैं। इनमें कुछ जैन प्रतिमाएँ हैं, यक्ष - यक्षणियाँ व बेलबूटे हैं। एकमात्र बौद्ध प्रतिमा भी अंकित है, जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यहाँ बौद्ध धर्मावलम्बी भी रहे होंगे, भले ही वे अल्पसंख्यक हों। वर्ष भर में एक बार चैत्र में यहाँ 'शनीचरा' का मेला लगता है। इस एक दिवसीय मेले में आसपास के ग्रामीण श्रद्धालुओं के अतिरिक्त और कोई नहीं आता। इसी दिन मंदिर की पुताई होती है। इस तरह वर्षों से चूने की पर्तों में मूर्तियों का मूल स्वरूप ढंक गया है जो मुश्किल से जाना जाता है। यह भी विस्तृत शोध का विषय है कि शनि मन्दिर में प्रतिष्ठित प्रतिमा क्या वास्तव में शनिदेव की है अथवा अन्य? कोलारस तहसील में पग - पग पर जैन प्रतिमाओं का भण्डार है, पर वे सभी असंरक्षित हैं। कोलारस, कोलारस से सेसई (9 मि.मी.), राई (10 मि.मी.), कैलधार (25 कि.मी.), खतौरा (30 मि.मी.), इन्दार (36 मि.मी.), रन्नौद (45 कि.मी.), भड़ौता - रामपुर (3 कि.मी.) आदि अनेक स्थलों में पाये जाने वाले मंदिरों व प्रतिमाओं के भगनावशेष इस तथ्य के प्रदर्शनार्थ पर्याप्त साक्ष्य हैं कि यह क्षेत्र कभी जैन संस्कृति का महत्वपूर्ण संवाहक रहा होगा। यह भी निर्विवाद है कि इस अंचल में प्राप्त जैन शिल्प 8वीं से 11 - 12 वीं शताब्दी का है। इस काल में यह क्षेत्र राजपूत राजाओं द्वारा शासित रहा है। '7 वीं से 12 वीं शताब्दी तक जिन अनेक स्वतंत्र प्रांतीय राज्यों का उदय हुआ, उनके शासकों को भारतीय इतिहास में "राजपूत युग' कहते हैं। इन सभी राज्यों के संस्थापक प्राय: राजपूत ही थे। पारागढ़ दुर्ग के बाहर दो लावारिस शिलाखण्ड पड़े हैं, जिन पर उर्दू में कुछ उत्कीर्ण है। इससे मुस्लिम आकमणकारियों का यहाँ आना तो पता चलता है, पर यह सिद्ध नहीं होता कि यह उनका धार्मिक या सांस्कृतिक केन्द्र होगा। निविढ़ अन्धकार में प्रकाश - रश्मि के रूप में वह एकमात्र अस्पष्ट, अपठित व खण्डित शिलालेख है जो एक खण्डित जैन तीर्थंकर की चरण - चौकी पर उत्कीर्ण है। सम्भव है इस शिलालेख व कोलारस के चन्द्रप्रभु दि. जैन मन्दिर में लगे शिलालेख का परस्पर सम्बन्ध हो। निश्चित ही इन दोनों शिलालेखों के उद्घाटन से पारागढ़ की धूल धूसरित जैन सभ्यता के सम्बन्ध में नवीन तथ्य प्रकाशित हो सकेंगे। मैं आह्वान करता हूँ पुराविदों का, इतिहासज्ञों का, शोधार्थियों का एवं जैन समाज के सम्माननीय धर्मप्रेमी श्रीमंतों का, कि पारागढ़ की विलुप्त जैन संस्कृति को प्रकाश में लाने हेतु कटिबद्धता प्रदर्शित करें। यहाँ की जैन शिल्प सम्पदा का संरक्षण सम्भव न हो तो कम से कम उस एकमात्र शिलालेख के संरक्षण की दिशा में ही प्रयत्न किया जाये जो इस स्थल की गौरवगाथा सुनाने आज तक जीवित है। निराशा की स्थिति में यही मानसिकता निर्मित होती है - 'वीरविहीन मही मैं जानी' । सन्दर्भ - 1. माथुर, एस.के. - प्राचीन भारत का इतिहास, ज्ञानदा प्रकाशन पटना, पृ. 33। मोहनजोदड़ों सिंधी भाषा का शब्द है.जिसका अर्थ है मुर्दो का टीला। 2. वही, पृ. 173 प्राप्त - 22.3.99 अर्हत् वचन, अक्टूबर 99
SR No.526544
Book TitleArhat Vachan 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year1999
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy