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पर 'वीरमार्तण्ड', उच्छंगी के दुर्ग में राजादित्य को छकाने पर 'रणरंगसिंह'. बागेयूर के दुर्ग में त्रिभुवनवीर को मारने और गोविन्दर को उस दुर्ग में प्रविष्ठ कराने के लिए "वैरिकुलकालदण्ड' तथा विविध युद्ध विजयों के उपलक्ष में 'भुजविक्रम', 'भट्टमारि', 'प्रतिपक्षराक्षस', 'नोलम्बकुलान्तक', 'समर केसरी', 'सुभटचूडामणि', 'समरपरशुराम' आदि उपाधियाँ प्राप्त हुई।
सदाचरण एवं धार्मिक कृत्यों के लिए चामुण्डराय को 'सम्यक्त्वरत्नाकर', 'सत्ययुधिष्ठर', 'देवराज', 'गुणकाव', 'गुणरत्नभूषण' जैसी सार्थक उपाधियाँ प्रदान की गई।
चामुण्डराय के अन्य उपनाम अण्णराय, गोम्मट और गोम्मटराय भी थे। उसकी स्नेहमयी जननी का नाम काललदेवी था। वह तीर्थंकर नेमिनाथ और भगवान बाहुबली का परमभक्त था। उसके कुलगुरू अजितसेनाचार्य थे। ऐसा कहा जाता है कि अजितसेनाचार्य ने ही उसे बाहुबली की प्रतिमा के निर्माण के लिए प्रेरणा दी थी।
वह सुदक्ष सैन्य संचालक, राजनीतिज्ञ और परमस्वामीभक्त होने के अतिरिक्त कन्नड़, संस्कृत एवं प्राकृत भाषाओं का विद्वान, कवि, टीकाकार, कलाकारों का प्रश्रयदाता और एक महान प्रश्नकर्ता भी था। 5. नेमिचंद्राचार्य - चामुण्डराय के जैन दर्शन विषय के विद्या गुरु आचार्य नेमिचंद्र थे। आचार्य को सिद्धान्तचक्रवर्ती के रूप में जाना जाता था। क्योंकि उन्होंने अपनी बुद्धि से जीवस्थान, क्षुद्रबंध, बंधस्वामी, वेदना खंड, वर्गणा खंड और महाबंध नामक छह खंडरूप सिद्धान्त शास्त्र को सम्यक् रूप से जाना था जिस प्रकार कि चक्रवर्ती ने भरतक्षेत्र के छ: खंडों को अपने वश में किया। उनके ग्रंथों से परिलक्षित होता है कि करणानुयोग पर उनका विशेष अधिकार था। सीमित शब्दों में आचार्य अपने समय के सर्वश्रेष्ठ विद्वान थे।
__ आचार्य नेमिचंद्र और आचार्य अजितसेन की उपस्थिति में ही श्रवणबेलगोल में स्थित बाहुबली की प्रतिमा की प्रतिष्ठापना रविवार, 13 मार्च 981 ई. को कराई गई थी।
डा. ज्योतिप्रसाद जैन का ऐसा मत है कि चामुण्डराय और आचार्य नेमिचंद्र मूलत: एक ही ग्राम में जन्में, पड़ोसी और घनिष्ठ मित्र या निकट संबंधी रहे है। कालान्तर में पहला महासेनापति हो गया, तो दूसरा दीक्षा लेकर एक महान जैनाचार्य।
नेमिचंद्राचार्य ने चामुण्डराय को सदा-सदा के लिए तीन महान कार्य के लिए अमर घोषित किया है। पहला उनके द्वारा चामुण्डराय के लिए लिखा गया ग्रंथ 'गोम्मटसार', दूसरा चंद्रगिरि पर स्थापित मंदिर में विराजमान नेमिनाथ भगवान की एक हस्तप्रमाण इन्द्रनीलमणि की प्रतिमा और तीसरा बाहुबली की प्रसिद्ध मूर्ति 'दक्षिण कुक्कुटजिन'। 6. गोम्मटसार - इस ग्रंथ की रचना आचार्य नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने की है। स्वयं उनके अनुसार इस ग्रंथ की रचना उन्होंने चामुण्डराय के लिए की है।
संसार में जीव और कर्म के संयोग से जो पर्यायें आती है, उनका विस्तार से वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है। इसमें तर्क - विधान, प्रमाण और नय द्वारा जैन दर्शन को स्थापित किया गया है। इसका आधार ग्रंथ धवला आदि को माना जाता है। इसका पूर्व भाग ‘जीवकाण्ड' कहलाता है, जिसमें 734 गाथाएं है। इसमें जीव के अनेक अशुद्ध अवस्थाओं का या भावों का वर्णन हैं। इसकी रचना पहले पाँच खंडों से गई है। गोम्मटसार का उत्तर भाग 'कर्मकाण्ड' कहलाता है। इसमें 972 गाथाएं है। इसमें कर्मों की अनेक अवस्थाओं का वर्णन है। इसकी रचना महाबंध से की गई है।
इस ग्रंथ की विषय वस्तु इसके पूर्व के ग्रंथों से ही ली गई है। किन्तु वह संवर्धित अर्हत् वचन, अक्टूबर 99
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