________________
वर्ष - 11, अंक - 4, अक्टूबर 99, 19 - 24
अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
गोम्मटसार का नामकरण
- दिपक जाधव *
सारांश गंग नरेशों के मंत्री और महासेनापति श्रीमद् चामुण्डराय के बाल्यावस्था के नाम 'गोम्मट' पर दसवीं शताब्दी के आचार्य नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने
उनके द्वारा संपादित ग्रंथ का नाम 'गोम्मटसार' रखा है। 1. प्रस्तावना - दसवीं शताब्दी के दिगम्बराचार्य नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने 'गोम्मटसार' नामक महत्वपूर्ण ग्रंथ की रचना की हैं। ग्रंथ का नाम यही क्यों रखा गया? इस प्रश्न के उत्तर को जानना ही इस आलेख का इष्ट है। इस हेतु कुछ आधारभूत तथ्यों को प्रस्तुत करना अनिवार्य है ताकि युक्तियुक्त परिकल्पना की जा सके। आधारभूत तथ्यों के प्रस्तुतीकरण में टीकाकार जे.एल. जैनी, इतिहासमनीषी डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, पुरातत्वविद टी.व्ही.जी. शास्त्री एवं देवेन्द्र कुमार शास्त्री के शोध कार्यों से सहायता ली गई है। 2. श्रवणबेलगोल - दक्षिणापथ के भूभाग पर वर्तमान कर्नाटक प्रदेश के हासन जिले में विन्ध्यगिरि एवं चंद्रगिरि के मध्य में श्रवणबेलगोल स्थित है। इसका पूरा नाम भूतपूर्व मैसूर राज्य के दीवान की दिनांक 28 मार्च 1810 ई. की सनद् में प्राप्त होता है। नाम तो इसके बहुत पूर्व से प्रचलित रहा है, किन्तु स्पष्ट कब से हुआ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। बारहवीं शती में प्रथम चारूकीर्ति स्वामी द्वारा यहाँ भटारकीय पीठ की
स्थापना होने के पश्चात् ही ऐसा हआ हो, यह ज्योतिप्रसादजी को प्रतीत होता
है।
सातवीं शती से ही शिलालेखों में 'बेलगोल' नाम का प्रयोग प्राप्त होने लगता है और मध्यकाल के अनेक अभिलेखों में बेल्गुल, बेलगोल, बेल्गोलपुर आदि नामों का प्रयोग इस तीर्थ के लिए हुआ प्राप्त होता है। श्रवणबेलगोल का अभिप्राय है 'श्रमणों का श्वेत सरोवर'। इससे सम्प्रेषित होता है कि यहाँ अतिप्राचीनकाल से कोई प्राकृतिक श्वेत सरोवर रहा हो जिसके तटवर्ती प्रदेश में अनेक निर्ग्रन्थ श्रमण मनि तपस्यारत रहते थे। कतिपय शिलालेखों में इस नगर का संस्कृत पर्यायवाची नाम धवलसर या धवलसरोवर भी प्राप्त होता है। इस नगर के निकटवर्ती क्षेत्र में हले-बेल्गोल और कोडि - बेल्गोल नाम के दो अन्य स्थान भी है। भिन्नत्व सूचित करने के लिए इस नगर को 'श्रवणबेलगोल' नाम दिया गया होगा। इसका पर्याप्त प्राचीन नाम 'कलवप्पु' रहा है, जिसका संस्कृत रूपान्तर 'कटवप्र'
प्राचीनतम स्थानीय शिलालेखों तथा साहित्यिक अनुश्रुतियों से विदित होता है कि ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में उत्तर भारत में बारह वर्ष के भीषण दुष्काल का पूर्वाभास पाकर अंतिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु अपने बारह हजार दिगम्बर मुनि शिष्यों सहित विहार करके दक्षिणापथ के इसी कटवप्र नामक पर्वत पर आकर विराजे थे। मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त ने भी राजपाट त्यागकर उनका अनुगमन किया। श्रवणबेलगोल में चन्द्रगिरि वही पर्वत है जिस पर चन्द्रगुप्त ने तपस्या की और अन्त में समाधिमरण किया। ऐसी भी अनुश्रुति है कि
* शोध छात्र - कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, 584, महात्मा गांधी मार्ग, तुकोगंज, इन्दौर-452001
व्याख्याता - गणित, जवाहरलाल नेहरू शास. आदर्श उ. मा. विद्यालय, बड़वानी (म.प्र.)