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वैदिक धर्मों के अनुयायी इस काल में पहचाने जाते हैं। इनमें से बौद्ध और जैन संघर्ष सरलता से समझा जा सकता है और इसी संघर्ष का शिकार तक्षशिला का विशाल जैन आगम संग्रह हुआ। बौद्धों के लिए विद्याओं का लिखित रूप होना एक नई बात थी क्योंकि बौद्धों के धर्म सूत्र बुद्ध की मृत्यु के लगभग 500 वर्ष बाद संग्रहीत किये गये।14 ऐसा लगता है, चंद्रगुप्त और चाणक्य इसी काल में इस क्षेत्र में अपने 'नंद हटाओ' अभियान के अंतर्गत आये होंगे। उनकी तक्षशिला क्षेत्र की यात्रा ने यह स्पष्ट कर दिया होगा कि जैन विद्याओं की जो होली जली है उस परिप्रेक्ष्य में तुरंत जैन आचार्यों को एकत्रित होकर अपने आगमों को व्यवस्थित करना चाहिए। इसी का परिणाम है कि चंद्रगुप्त के राज्यारोहण के तुरंत बाद जैन संगीति का आयोजन किया गया। इस संगीति की तैयारी प्रक्रिया में कुछ ऐसी स्थिति पैदा हुई कि भद्रबाहु इस संगीति में उपस्थित नहीं हुए। यह वह संकेत है जो विषम परिस्थितियों में से गुजर रहे जैन संघ की ओर प्रकाश डालता है। भद्रबाहु जैन विद्याओं के अधिकारी व्यक्ति थे और उनका संगीति में उपस्थिति नहीं होना संगीति की सार्थकता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। ऐसा लगता है पूर्व और मध्य भारत के क्षेत्र में श्रेणिक, बिम्बसार, उदयन, नन्द
और चन्द्रगुप्त के राजकीय प्रश्रय में जैन संघ सुविधा भोगी हो गया हो। हो सकता है बौद्ध समूह उत्तर पश्चिम की तरफ तथा दक्षिण की ओर चला गया हो। बौद्ध धर्म का महायान आन्दोलन दक्षिण में ही पनपा और बाद में प्रसार पाया। प्रारंभ में राजकीय प्रश्रय की अनुपस्थिति में बौद्ध संघ, जैन संघ से अधिक नाराज हो गया हो और
तक्षशिला का होली कांड उसका ही परिणाम हो। 3. तक्षशिला क्षेत्र का तत्कालीन जैन संघ भी अपनी आगमथाती को सम्हालने में अक्षम
लगता है। लगातार विदेशी राज्य, ब्राम्हण और बौद्ध धर्म के दबाव में यह क्षेत्र अलग थलग पड़ गया हो। इस अलगाव को इतिहासकारों ने पहचाना है। राजनैतिक परिस्थिति समस्त उत्तर भारत की इस समय के आपसी संघर्ष व परिवर्तन को रेखांकित करती है। उत्तर पश्चिम में पुरू और आंभी के दो शक्ति केन्द्र नजर आते हैं और पूर्वांचल में नंद और खारवेल वंश नजर आता है। पुरू और आंभी का संघर्ष तथा नन्द और खाखेल का संघर्ष इतिहास सिद्ध है। आंभी ने बिना युद्ध सिदंकर का प्रभुत्व स्वीकार किया था इन सब की अंतधाराओं का मूल्यांकन आवश्यक है। आंभी के राज्य में यदि यह होली जली तो भी क्यों? क्या आंभी का प्रश्रय इस दहन को था ? तक्षशिला आंभी की राजधानी थी और छ: महीने चलने वाली होली किसी राजा की आंख से ओझल नहीं रह सकती। 'होली जलना' कभी - कभी कहावत रूप में व्यक्त होता है पर उसका अर्थ होता है नष्ट कर देना। हो सकता है यह किंवदंती वास्तविक अग्नि से जुड़ी न हो किन्तु विनाशलीला से तो इसका आशय है ही।
पूर्वी व मध्य भारत भी, चंद्रगुप्त, चाणक्य, भद्रबाहु की शक्तिशाली एकजुटता के बाद भी जैन संघ को विभाजन से नहीं रोक सका। इसीलिए तो खारवेल को शिलालेख में अंकित करना पड़ा 'मौर्यकाल में विच्छिन्न हुए चौंसठ भागवाले चौगुने अंग साप्तिक का उसने उद्धार किया।' चंद्रगुप्त मौर्य के समय में जैन मूल ग्रन्थों के विनाश को लेकर जैन परम्परा में जो विवाद चलता है, इसका लेख के उक्त पाठ से आश्चर्यजनक समर्थन होता है। इसमें यह स्पष्ट है कि उड़ीसा जैन धर्म के उस संप्रदाय का अनुयायी था जिसने चंद्रगुप्त के राज्य में पाटलीपुत्र में होने वाली वाचना में संकलित आगमों को स्वीकार नहीं किया था।
तक्षशिला आज पाकिस्तान में है। क्या जैन जन मानस में छिपी इस होली की
अर्हत् वचन, अक्टूबर 99