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वर्ष - 11, अंक - 4, अक्टूबर - 99, 9 - 18
अर्हत् वचन । (कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर)
किंवदन्तियों के पार से झांकते सत्य
. सूरजमल बोबरा*
मानव जीवन की अनंत काल से चली आ रही यात्रा का रिकार्ड होना या उसे रखना असंभव कार्य है। किन्तु इस बात से कोई असहमत नहीं हो सकता कि अपने आपको व्यक्त करना मनुष्य की सदैव से इच्छा रही है। इस इच्छा ने मानव जीवन की
ता के सिद्धान्त को आधार दिया और संभवत: इस इच्छा ने सभ्यता के केनवास में अनमोल रंग भरे। आगम, शास्त्र - पुराण, कविता, कहानी और कला के सभी माध्यम इस इच्छा के परिणाम हैं। इसी ने इतिहास और पुरातत्व के मसाले गढ़े हैं। यद्यपि भूलना मनुष्य का स्वभाव है, फिर भी अभिव्यक्तियों ने चाहे अनचाहे अद्भुत संदर्भ जुटाये हैं। कहीं शैलचित्रों के रूप में, कहीं सूक्तों के रूप में, कहीं शिलालेखों के रूप में, कहीं वास्तु शिल्पों के रूप में और कहीं संगीत, शास्त्र व पुराणों के रूप में मानव जाति ने इस भूल जाने के स्वभाव के पीछे झांकने के अनूठे रास्ते छोड़े हैं।
ऐसा ही एक रास्ता है, स्मरण द्वारा सुनी, पूर्वजों द्वारा बताई और परम्परा से चली आ रही बातों-किंवदन्तियों, अनुष्ठानों व गल्पों का खजाना। यह सभी विधाएँ जन-जन के माध्यम से सतत जीवित रहती हैं। पीढ़ी - दर पीढ़ी इनका संदेश अगली पीढ़ी तक जाता है और सूचना जीवित रहती है। इन विधाओं को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। श्री रामशरण शर्मा का यह कहना है कि मिथकों, अनुष्ठानों के उदभव और विकास का सम्बन्ध वास्तविकता से है। यहाँ तक कि जंगली पौधों और वनस्पतियों का विकास भी कुछ नियमों द्वारा नियंत्रित होता है। अत: मिथक और अनुष्ठान रिक्तता अथवा बंजर भूमि में उत्पन्न नहीं होते। इनकी उत्पत्ति किन्हीं भौतिक तथा सामाजिक पर्यावरणों के कारण हई है, जिन्हें ये सहायता प्रदान करते हैं और स्थिर बनाते हैं। भारत के इतिहास के बारे में तो इसका बहुत ही महत्वपूर्ण हाथ है। आप देखेंगे कि सिंधु जीवन शैली का जो चित्र उभरता है, वही चित्र वैदिक काल (यद्यपि ऋग्वेद में उसके दिशाभेद के संकेत है, किन्तु भारत के पर्यावरण के प्रमुख तत्वों का पूर्ण प्रभाव और उस के कारण जीवन शैली की निरंतरता दिखाई देती है।), महाभारत काल, बुद्ध - महावीर काल, आचार्य जिनसेन के काल का भी उभरता है और यही अनुष्ठान - मिथक - किंवदंतियों आदि को साथ प्रदान करता है। बहुत प्राचीन काल का (ऋग्वेद के पूर्व का) हमारे पास कोई रिकार्ड नहीं कि ऋषभ के पुत्र भरत के नाम पर ही इस देश का नाम भरतखंड या भारत वर्ष हुआ। बहुत बाद में वेदों ने इसे सूत्रों में रिकार्ड किया और कई शताब्दियों की किंवदंतियों की यात्रा कर भी यह बात भारत के जन - जन के हृदय में आज अंकित है।
मान्यताओं के अनुसार सदियों तक अलिखित ऋग्वेद स्मरण में जीवित रह सका तो स्मरण और परंपरा से कही सुनी बातों में सत्य क्यों जीवित नहीं रह सकता? हो सकता है ऐसी बात में कुछ बढ़ा-चढ़ाकर कह दिया गया हो। कुछ विस्मृत हो गया हो किन्तु मन को छू लेने वाली घटनाएं बातें पूर्णत: कभी जनमानस से दूर नहीं होती। सूचना प्रवाहमान रहती है। किन्तु उसे असत्य नहीं कहा जा सकता। उसका आधार कहीं न कहीं होता है।
हमें यहाँ दो बातों पर अवश्य ध्यान रखना है। पहली तो यह कि इन जन मानस में प्रवाहमान बातों को किसी पूर्वाग्रहजनित उद्देश्य से प्रचारित न किया गया हो। इन बातों को इतिहास और भूगोल की कसौटी पर कसा जाना चाहिए। इसके बाद ही उन्हें स्वीकार * 9/2, स्नेहलतागंज, इन्दौर