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में सुप्रसिद्ध पुस्तक Unesco Time and the Science की भूमिका में सर जार्ज पोस्टर ERS. लिखते हैं कि पिछले दशक से इस रॉयल संस्थान में शोध करने का मख्य विषय तेजी से होने वाले रासायनिक परिवर्तन और क्षणिक अस्तित्व के पदार्थों का अध्ययन करना है और उस दौरान समय का अन्तराल जिसके ऊपर चिंतन किया जाता है उसे Microsecond से Piscosecond (1014s) के Million अंश तक संक्षिप्त कर दिया गया है। जहाँ तक Chemistry का संबंध है वहां समय का अंश Femtosecond तक और समय की अनिश्चित सीमा तक ले जायेगा। जहां तक Chemistry का अस्तित्व है उससे भी आगे समय का इन सभी की अपेक्षा और छोटा अस्तित्व है।'
__ अत: हम देखते है कि विद्वान और अधिक सूक्ष्मतम काल 'समय' (जैन दर्शन का समय) की संभावना अभी भी रखते हैं।
वैज्ञानिक तो काल यात्रा का ख्वाब भी देखते हैं किन्तु क्या कभी उसकी यात्रा की जा सकती है जिसकी नित्य सत्ता न हो। कालाणु की नित्य सत्ता है। बिना इसको स्वीकारे वैज्ञानिक कालयात्रा तो क्या, काल यात्रा का ख्वाब भी नहीं देख सकते हैं।
मनोविज्ञान भी काल के संदर्भ में ऐसे महत्वपूर्ण सुराख निकालेगा - ऐसा विश्वास नहीं किया जाता था। हम चाहें तो मनोविज्ञान को और भी ज्यादा विकसित कर सकते हैं। विज्ञान में आत्मा प्रत्यक्ष नहीं है इसलिए वे इसे ज्यादा प्रामाणिक नहीं मानते। विज्ञान हो या मनोविज्ञान इनके पास मात्र दो चीजें है एक मन और दूसरा बुद्धि। ये मन और बुद्धि के माध्यम से जो उन्नति करने की कल्पना करते है, वह जैन दर्शन के अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष तक चला जाता है। जैसे जो बात जे. ग्रीवन अपनी पुस्तक 'टाइमबर्थ' में भूत और भविष्य को प्रत्यक्ष जानने की करते हैं वह अतीन्द्रिय ज्ञान का विषय है। जिसका कि विज्ञान के पास अभाव है किन्तु उनकी कल्पना काबिले तारीफ है जो अनुमान से 'केवलज्ञान' को सिद्ध करती है। इसके अनुसार अवचेतन की अवस्था में भूत भविष्य को जाना जा सकता है, किन्तु मुझे विश्वास है मनोवैज्ञानिक भविष्य में यह अवश्य सिद्ध कर पायेगे कि 'अवचेतन' मूलत: जड़ता या बेहोशी न होकर अतीन्द्रिय ज्ञान की दशा है और वस्तुत: उसी वीतराग शुद्धोपयोगी अवस्था में भूत और भविष्य प्रत्यक्ष होता है जो वैराग्य, संयम, ध्यान, योग और वीतरागता से प्राप्त होता है।
मनोवैज्ञानिक तो इस काल के जादुई रहस्य को खोलने का अनेक प्रयास करते रहे हैं और करते रहेंगे किन्तु मेरा मानना है कि इस दिशा में हम स्वयं ही प्रयास कर सकते हैं। हम सभी में से अधिकांश व्यक्ति कभी-कभी किसी घटना को देखकर कुछ पल के लिए यह अनुभव करने लगते हैं कि ऐसा मेरे साथ पहले कभी हो चुका है, प्राय: ऐसी घटनायें नये स्थानों पर भी होती हैं जहां हम पहले कभी नहीं गये। बिल्कुल ऐसा ही वार्तालाप, ऐसी ही क्रिया, या घटना मेरे सामने कभी घट चुकी है - ऐसा अनुभव होता है। फिर तुरन्त ही दूसरे क्षण हम यह विस्तार करने लगते हैं ऐसा क्यों हुआ? हमारे मन में ऐसा प्रश्न अवश्य उठता है किन्तु हम उसे दृष्टिभ्रम या स्वयं को चक्कर में आने का प्रसंग जोड़कर उस जिज्ञासा का वहीं उपशम कर देते हैं। यह भी खोज का विषय हो सकता है कि क्या काल का कोई सूक्ष्म अमूर्तिक नित्य अस्तित्व संपूर्ण लोक में है और जो अनायास कभी - कभी हमारे अनुभव का विषय बन जाता है? संभवत: कालाणु? _ विभिन्न वैज्ञानिक काल संबंधी विभिन्न मत प्रस्तुत करते हैं किन्तु वे अभी भी
अर्हत् वचन, जुलाई 99