SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्धान्त - जैन दर्शन का सर्वमान्य सार, सूत्रों के रूप में 'तत्वार्थ सूत्र' में दिया गया है। उन सूत्रों को कोशिका विज्ञान के अन्तर्गत कोशिका, केन्द्रक संरचना, जीन्स एवं जैनेटिक कोड के परिप्रेक्ष्य में देखने पर एक नयी दृष्टि मिलती है तथा ऐसा प्रतीत होता है कि कर्म कहीं ना कहीं जीवन नियामक इकाइयों जीनों (Genes) से अवश्य ही जुड़े हुए हैं। विश्लेषण तथा विवेचण जीवन का जीव वैज्ञानिक आधार - विभिन्न प्रकार की अनेकों कोशिकाओं से मिलकर जीवों का शरीर बना होता है। समान कोशिकाओं का समूह मिलकर ऊतक बनता है। विभिन्न अंग मिलकर अंग तंत्र बनाते हैं। अंग तंत्रों का सम्मिलित रूप किसी भी जीव के जीवन को संचालित करता है। 1 प्रत्येक कोशिका में एक केन्द्रक होता है, केन्द्रक के अन्दर गुणसूत्र होते हैं जो कि DNA से मिलकर बने हुए होते हैं। गुणसूत्र ही हम सभी जीवों के विभिन्न गुणों का निर्धारण करते हैं। DNA तथा शर्करा क्षारक तथा फास्फेट नामक तीन रसायनों से मिलकर बनते हैं जिनमें से चार क्षारकों के विभिन्न प्रकार से लगे रहने से ही विभिन्न गुण उत्पन्न होते हैं। ये क्षारक तीन की तिकड़ी में लगे होते हैं तथा जेनेटिक कोड कहलाते हैं। ये जेनेटिक कोड निश्चित क्रम में व्यवस्थित होकर जीन की रचना करते हैं जो कि गुण सूत्रों पर लगे रहते हैं। इन जीन तथा जेनेटिक कोड को हम प्रत्येक जीव का भाग्य या भाग्य विधाता कह सकते हैं। प्रत्येक जीव की रचना एवं कार्य उसके गुणसूत्रों के अनुसार ही होते हैं। जीवन संचालक क्रियाओं के प्रत्येक चरण में किसी ना किसी एंजाइम की आवश्यकता होती है जिसका निर्माण किसी विशिष्ट जीन के द्वारा ही होता है। 2 इन जीनों में परिवर्तन होते रहते हैं जिन्हें कि उत्परिवर्तन कहते हैं जिसके अनुसार उस जीव के गुणों में भी परिवर्तन आ जाता है। जीवन संचालक जैन कर्म सिद्धान्त - इस विश्व में कार्माण वर्गणा ठसाठस भरी यी है। उसमें कर्म रूप परिणमन करने की योग्यता भी है। 3 कर्म परमाणु के योग के द्वारा आकर्षित होकर आने को आस्रव कहते हैं। जीव के उपयोग (राग, द्वेष, अध्यवसाय) का निमित्त प्राप्त करके कर्म वर्गणायें जीव के प्रदेशों में संक्लेष रूप से बंध जाती हैं इसे कर्म बंध कहते हैं। 5 संसारी जीवों के प्रत्येक भव में प्रत्येक समय में कर्म बंध होता है। जीव के साथ कर्म बंध होने के लिये पुद्गल परमाणुओं के बंध योग्य गुणों के साथ-साथ जीव में भी बंध होने योग्य गुणों की आवश्यकता होती है।' ज्ञानावरणादिक अष्ट कर्मों के समूह को कार्माणकाय कहते हैं। यद्यपि कार्माण शरीर आकार रहित है तथापि मूर्तिमान पुद्गलों के संबंध से अपना फल देता है। शरीर, वचन, मन और प्राणापान यह पुद्गलों का उपकार है। 10 सुख, दुख, जीवन एवं मरण में पुद्गलों के उपकार हैं जो कि विभिन्न कर्मों के उदय से होते हैं। 11 पुद्गल, रस, गन्ध और वर्ण वाले होते हैं। 12 विश्व में दृश्यमान एवं पांचों इन्द्रियों के जितने द्रव्य अर्हत् वचन, जुलाई 99 18
SR No.526543
Book TitleArhat Vachan 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year1999
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy