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है। अभी तक प्रयोगशाला में स्तनधारी जीव पैदा नहीं किवा जा सका है। हाँ, टेस्टट्यूब में भ्रूण तो तैयार किया जा सका है, लेकिन उसका विकास मादा के उदर (गर्भाशय) में ही सम्भव हो सका है। क्योंकि उसके विकास के लिये आवश्यक ताप, दाब तथा खुराक मादा द्वारा ही उपलब्ध कराई जा सकती है।
कुछ लोग यह सोचते हैं कि भेड़ के क्लोन (डॉली) को भी टेस्टट्यूब बेबी जैसा ही मानना चाहिये। चूंकि क्लोन के भ्रूण को प्रयोगशाला में (टेस्टट्यूब) तैयार किया गया, अत: इसे टेस्टट्यूब बेबी माना जा सकता है।
अब एक अन्तिम प्रश्न यह रहता है कि जैन धर्म के हिसाब से जीव के शरीर की रचना उसके नाम कर्म के कारण होती है। कोई जीव कैसी शक्ल - सूरत प्राप्त करेगा, इसका निर्धारण इसी नाम कर्म से होता है। लेकिन यहाँ तो क्लोन के शरीर की रचना अब अपने ही हाथों में आ गई है। हम जैसी शक्ल - सूरत बनाना चाहें बना सकते हैं।ऐसी स्थिति में नामकर्म की अवधारणा तो अर्थहीन हो गई है। लेकिन यह मान्यता उचित नहीं है। वस्तुस्थिति क्या है?. यह समझने के लिये हमें कर्म - सिद्धान्त पर थोड़ा ध्यान देना पड़ेगा।
सबसे पहले तो हमें यह स्पष्ट कर लेना चाहिये कि प्रत्येक घटना मात्र कर्म से ही घटित नहीं होती है। कर्म ही सब कुछ नहीं होते हैं। यदि हम कर्मों के अधीन ही सब कुछ घटित होना मान लेंगे तो यह वैसी ही व्यवस्था हो जायेगी जैसी कि ईश्वरवादियों की है कि जो कुछ होता है वह ईश्वर की आज्ञा से होता है या फिर उन नियतिवादियों की स्थिति है कि सब कुछ नियति के अधीन है, हम उसमें कुछ भी फेरफार नहीं कर सकते हैं। यदि कर्म ही सब कुछ हो जाये तो उनको नष्ट करने के लिये न तो पुरुषार्थ का ही महत्व रह जायेगा और न ही मोक्ष सम्भव होगा। क्योंकि जैसे कर्म होंगे वैसा उनका उदय होगा और उस उदय के अनुरूप ही हम कार्य करेंगे तथा नये कर्मों का बन्ध करेंगे। इससे तो पुरुषार्थ तथा मोक्ष की बात ही गलत सिद्ध हो जायेगी। अत; यह तय हुआ कि कर्म ही सब कुछ नहीं है।
कर्म एक निरंकुश सत्ता नहीं है। कर्म पर भी अंकुश है। कर्मों में परिवर्तन भी किया जा सकता है। भगवान महावीर ने कहा - "किया हुआ कर्म भुगतना पड़ेगा', यह सामान्य नियम है, लेकिन इसमें भी कुछ अपवाद है। कर्मों में उदीरणा, उत्कर्षण, अपकर्षण तथा संक्रमण सम्भव है जिसके कारण कर्मों में परिवर्तन भी किया जा सकता है। सामान्य शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि पुरुषार्थ द्वारा कर्मों की निर्जरा समय से पहले भी की जा सकती है। कर्मों की काल मर्यादा और तीव्रता को बढ़ाया और घटाया जा सकता है तथा कर्म एक भेद से सजातीय दूसरे भेद में भी बदल सकता है। उदय में आ रहे कर्मों के फल देने की शक्ति को कुछ समय के लिये दबाया जा सकता है तथा काल विशेष के लिये उन्हें फल देने में अक्षम भी किया जा सकता है, इसे उपशम कहते हैं।
आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार 'संक्रमण का सिद्धान्त' जीन (Gene) को बदलने का सिद्धान्त है। एक विशेष बात यह और ध्यान देने योग्य है कि कर्मों का विपाक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव के अनुसार होता है। यह विपाक निमित्त के आश्रित है तथा उसी के अनुरूप यह फल देता है। यदि दो व्यक्तियों को एक जैसा असातावेदनीय क का उदय हो. उनमें से एक धार्मिक प्रवचन या भजन सुनने में मस्त रहा हो तथा दूसरा अकेला बिना किसी काम के एक कमरे में बैठा है तो दूसरे व्यक्ति को पहले के मुकाबले
अर्हत् वचन, जुलाई 99
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