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________________ www . ११२ પોરવાડ જ્ઞાતિકા દિગદર્શન. ( हिम्मतमल रूपचंदजी ) यह एक सृष्टिका अविचल नियम है कि जो जितनी उन्नति को प्राप्त करता है वह एक वार उतनी ही अवनति को प्राप्त होता है। ठीक यही नियम प्रत्येक देश, धर्म, समाज एवं व्यक्ति के उपर जीवन में एक वार नहीं किन्तु अनेक वार अवश्य ही आता है, मैं जिस ज्ञाति का दिग्दर्शन पाठकों को कराना चाहता हूं यह जाति भी ठोक इसी दशा को प्राप्त પ્રભુનૢ જૈન पोरबाड शब्द यह प्राग्वद जाति का अपभ्रंश है, इस के मूल स्थापक आचार्य श्री स्वयंप्रभरि (पश्वनाथ के पांचवे पट्टपर) थे। श्रीमालनगर के राजा व प्रजा को जैन बना कर आप पद्मावती नगरी, कि जहां का राजा पद्मसेन किसी देवी के उपसंग को शान्त करने के लिये अश्वमेघ यज्ञ करनेवाला था उस पर अपने अतुल विद्याबलद्वारा अंतरमुहूर्त में ही • पहुंच गये। मुनि क्रिया से निवृत्त हो राजसभा में जाने के लिये कटिबद्ध हो गये । राजसभा में पहुंचते ही राजा व प्रजाने आप का उचित सत्कार किया ! सभामंडप प्रेक्षकों से चकारबद्ध भर गया। राजा के पास वे यज्ञाध्यक्षक (यज्ञ करनेवाले ) भी बेठे गये । तत्पश्चात् आचार्यदेवने अपनी दिव्य वक्तृत्व शक्तिद्वारा जनता के समक्ष " अहिंसा परमो धर्मः का विस्तृत विवेचन ऐसी शालीद्वारा किया कि वहां उपस्थित श्रोतागणों के वज्र साद्दश्य हृदय भी कोमल हो गये। उन्हों को यज्ञ जैसे निर्दय निष्ठुर कार्यप्रत्ये घृणा उत्पन्न होने लगी । उसी वक्त राजा प्रधानादि ४५००० घरोंने सूरिजी के पास जैन धर्म स्वीकार किया। सूरिजीने उनका नाम प्राग्वट वंश से उद्घोषित किया । पोरवाड जाति को अंबिका देवी के दिये हुए सात वरदानो को पोरवालोंने ठीक चरितार्थ कर दिखाये थे । श्री. दुर्गप्रदानेन, गुणसतकंरोपणात् । पुसतकवतोsपि, प्राग्वट ज्ञाति विश्रुता ॥ आद्यं प्रतिज्ञानिवीही, द्वितीय प्रकृतिः स्थिरा । तृतीय प्रौढवचनं चतुर प्रज्ञा प्रकर्षवान् ॥ पंचम प्रपंचज्ञ, पष्टं प्रपलं मानसम् । सप्तमं प्रभुताकांक्षी, प्राग्वट पुटसप्तकम् ॥ (विमलचरित्रम् ) अर्थ -- ( १ ) प्रतिज्ञा का पालन करना ( २ ) प्रकृति के स्थिर अर्थात् धैर्यवत शांतचित्त से कार्य करना (३) प्राढवचन ( ४ ) बुद्धिमता (५) प्रपंचज्ञ - सर्व कार्य करने में कुशल (६) मन की मजबूती (प्रभुताकांक्षी ) प्रभुता प्राप्ति की इच्छा वाले । वि. सं. १०८ के अंदर जावड़शा और भावशा नाम के रत्न पोरवाड शांति में उत्पन्न हुए थे कि जिन्हाने पवित्र २० ता० २८-१-:3 तीथोधिराज शत्रुंजय का उद्धार कराया था ! ऐसे बहुत से रत्न पोरवाड जाति में पैदा हुए हैं कि जिनका यदि पूर्ण इतिहास लिखा जाये तो बडा भारी ग्रंथ बन जाय ! यहांपर तो कुछ वीरो का ही परिचय दिलाना ही उपयुक्त होगा । प्राग्वाटवंशीय वीर नोना, लेहरीने पाटनाधिपति वनराज चावडे के सेनापति के पद रह कर बड़े २ वीरता के कार्य किये थे। इन्हीं के वंश में ही विमलशा नाम के महादानेश्वरी नरकेशरी पैदा हुए थे कि जिन्होंने केवल पोरवाड ज्ञाति को ही नही परंतु सारे जैन समाज को उन्नति के शिखर चढा दिया था और उन के बनाये हुए आयु व कुम्भातियाजी के जिनालय सिर्फ भारत में ही नहीं परंतु उन्हेंा की शिल्पकला युरोप-अमेरीका तक प्रसिद्धि पा चुकी है, विमलशा के परिचय धैर्यता, धर्म व राष्ट्रसेवा किसी इतिहासज्ञा से छीपा नहीं है ! के लिये उन शुभ नाम ही पर्याप्त होगा, उन की वीरता, जिन्हों की शौर्यता, वीरता, उदारता, परोपकारता, धर्म व राष्ट्रसेवारूप कीर्ति जगविख्यात है, जिन्होंने अपनी असंख्य लक्ष्मी सद्कार्य में व्यय की है व नररत्न बीरशिरोमणी वस्तुपाल- तेजपाल इसी जाति में उत्पन्न हो कर संसार को बता दिया था कि जैन धर्म कायरों का नहीं परंतु शुरवीरों का धर्म है। जिन्होंने राणकपुरजी का भव्य जगविख्यात जिनालय. बंधाने का साभाग्य प्राप्त किया वे इसी वंश के नररत्न धना सा थे, और भी आसोसा असंख्य नररत्नोंने धर्म, समाज और राष्ट्र की सेवा बजा कर जो सौभाग्य प्राप्त किया था वह भी इतिहासक्षेत्र में अपना गौरव बतला रहे है, कहां तो उपरोक्त प्राग्वटवंशीय नरवीरों की वीरता, शथिता, परोपकारता, उदारता, धर्म व राष्ट्रसेवा आर कहां आज उपरोक्त भावनाओं की मंदता व दिनपरदिन घटती हुई संख्या और अंदर ही क्लेश-कदाग्रहादि ? के पोरवाड शांति के अग्रेसरो ! अब उठ कर कर्मक्षेत्र में आगे पैर बढाओ और जनता के समक्ष अपने पूर्वजों का इतिहास उपस्थित करो कि अब भी हमारे में पूर्वजो का गौरव नसोनस में भरा हुआ है। अतएव उन्नति व अभ्युदय के लिये अपने पूर्वजों का इतिहास को जानना प्रत्येक देश व ज्ञाति के लिये अनिवार्य है। किसी अंग्रेजी कविने बहुत ही ठोक कहा है- A people which takes no pride in the achievements of remote ancesters will never achieve anything worthy to be remembered with pride by remote descendents. अर्थात् जो अपने पूर्वजों का श्रेष्ट कार्यों का अभिमान् और स्मरण नहीं करती वह ऐसी कोई बात न कर सकती जो कि बहुत पीढी पीछे उन की संतान से सगवे स्मरण करने योग्य हो । Printed by Lalji Harsey Lalan at Mahendra Printing ! Press, Gaya Building Masjid. Bunder Road Bombay, 3. and Published by Shivlal Jhaverchand Sanghvi for Jain Yuvak Sangh. at 26-30, Dhanji Street Bombay, 3.
SR No.525918
Book TitlePrabuddha Jivan - Prabuddha Jain 1933 Year 02 Ank 11 to 45 - Ank 39 40 and 41 is not available
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrakant V Sutariya
PublisherMumbai Jain Yuvak Sangh
Publication Year1933
Total Pages268
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Prabuddha Jivan, & India
File Size30 MB
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