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________________ ૨૨ પ્રબુદ્ધ જૈન. हिन्दी विभाग. जैनियो ! सच्चे जैनी बनो । वर्तमान जैन समाज रूढिधर्म और दलबन्दी के कारण क्षीण होता हुआ मृत्यु की तरफ अग्रसर हो रहा है । इसका कारण जैन-धर्म के वास्तविक रूप की अज्ञानता है । इसका एक मात्र उपाय हमारा सच्चा जैन बनना है। सच्चे जैनत्व को प्राप्त करके हम केवल जैन समाजमें ही नहीं किन्तु समस्त संसार में प्रेममय सुख, शान्ति का राज्य स्थापित कर सकते हैं । (१) आत्म स्वतन्त्रता जैन धर्मका प्रधान लक्ष्य है। वह ईश्वर की भी गुलामी स्वीकार नहीं करता, क्यों की आत्मासे ही परमात्मा होजाना उसका मुख्य सिद्धान्त है । यह समानाधिकार का निर्मल और उच्चतम रूप है । (२) विचार या व्यवहार संकीर्णता के लिये जैन धर्ममें कोई स्थान नहीं है । परस्पर विरोधी विचारों को निर्विरोध करना ही स्याद्वाद है । मैं जो मानता हूँ वही ठीक है, इसप्रकार के को जैन धर्म में एकान्तवाद, या मिथ्यात्व ( झुठ ) के नामसे कहा गया है । नीचातिनीच दुःखमय परिस्थिति से जीव मात्र का उद्धार करना जैन धर्मका मुख्य ध्येय है । इस लिये प्रत्येक जैन को सहनशील और उदार होना आवश्यक है। (३) जैन - धर्मके ध्येय और सिद्धान्तमें इतना दृढ निश्चय होना आवश्यक है, कि जिससे बदनामी का डर, [ लोक भयं ] स्वर्ग नरक का भय [ परलोक भय ] तकलीफों का डर, मृत्यु भय, छिपी बातों के खुलने का डर, [गुप्त भय ] अकेलेपन का डर, [ अनरक्षा भय ] और आकस्मिक आदि किसी भी प्रकार के भयसे अपने मार्गसे विचलित न हो । (४) प्रत्येक जैनको लालच और स्वार्थ छोडकर अनासक्त होकर जीव मात्रका उपकार करना चाहिये । (५) प्रत्येक जैनकी अन्तर्दृष्टि होनी चाहिये । किसीके बाह्यरूपको देखकर घृणा करना उचित नहीं है । (६) प्रत्येक जैन को विचारवान - विवेकी और परीक्षाप्रधानी होना चाहिये । प्रचलित कुरीतियों और रूढियोंका अनुगामी न होना चाहिये ! अहितकर शास्त्रो और भेषियोंके बाह्यरूप को देखकर लुभाना नहीं चाहिये। उनके अन्तरङ्गको 'देखकर परख करो । ता० ८-७-33 (७) किसीभी अज्ञान या निर्बल व्यक्तिद्वारा किये हुये अयोग्याचरणको गुप्त रीतिसे सुधार करना उचित है । परन्तु उदंडी ढोंगियों और समाजकी कमजोरीसे लाभ उठाने वालोंके असली रूपको प्रकट करके धर्म मार्ग को रखते हुये वृद्धि करना उचित है। (८) कोईभी व्यक्ति यहि धर्माचरण से च्युत हो जावे तो उसे जैसे बने तैसे स्थिर करना उचित है । बहिष्कार करना उचित नहीं । (९) सहधर्मियोंसे माँ बच्चे जैसा शुद्ध निष्कपट प्रेम रखना चाहिये । (१०) प्रत्येक जैनका यह पवित्र कर्तव्य है, कि वह जिस प्रकारसे होसके उस प्रकार संसारका अज्ञानान्धकार दूर करके घर-घर और कोने-कोने में वीर भगवान् के दिव्य सन्देश को पहुँचा कर जैन-धर्मके महत्वको जगद् व्यापी करदे । समाज के सभी विचारवानों और विशेषतः उत्साही नवयुवकों से हमारी अपील है कि वे इस पवित्र कार्य में सहयोग दें । जैन समाजके सच्चे कर्मबीर सेवकोंके लिये यह एक बड़ा उपयुक्त क्षेत्र है । चौधरी बसन्तलाल जैन, सञ्चालक - जैन युवक संघ इटावा . કેશરીયાજી તીર્થ સંબંધમાં પેથાપુર જૈન સંઘના ઠરાવે. ( ૧ ) કેશરીયાજી તીર્થ સંબંધમાં ત્યાંના પડયાક્ષેચ્યું જે આપખુદી અને અધટીત વર્તનથી જેનેાની લાગણી દુભાવી છે તે બદલ આજની સભા સખત શબ્દોમાં તિરસ્કાર જાહેર કરે છે, અને વધુમાં ના પૂર્વક શાને છે કે શ્રી જૈન શ્વેતાંમ્બર મૂર્તિપૂજક કામના હક્કને ઇરાદા પૂર્વક નુકશાન પેથાડવાની જે પ્રકૃતિ ગૃહ કરવામાં આવી છે. પ્રવ્રુતિ નષ્ટ કરવા ઉદેપુર નરેશને વિનંતી કરે છે. (૨) અખીલ ભારતીય જૈન શ્વેતાંમ્બર મૂર્તિપૂજક કામને નમ્ર અરજ ગુજારે છે કે કેશરીયાજી તીર્થ માં ખર્ચાતુ દ્રવ્ય પડયાગ્માના સ્તકમાં જવા ન પામે તેવી દરેક પુરતી કાળજી લેવી, અને વધુમાં આણુજી કલ્યાણુની પેઢીને પશુ આ પ્રકરણને લગતા યોગ્ય દાન કરવા તેમજ દુભાયેલી લાગણી શાંન્ત કરવા જે જે યોગ્ય પગલાં લેવાં ઘટે. તે લેવા સૂચના કરે છે. આ પત્ર મનસુખલાલ હીરાલાલ લાલને જૈન ભાસ્કરાદય પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, ધન સ્ટ્રીટ, મુંબઇ ન. ૩ માં છાપ્યું છે. અને गोउलहास भगनवाब शाहे 'जैन युवक संघ' भाटे २६-३०, धन स्ट्रीट, 3 गांधी अगर छे.
SR No.525918
Book TitlePrabuddha Jivan - Prabuddha Jain 1933 Year 02 Ank 11 to 45 - Ank 39 40 and 41 is not available
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrakant V Sutariya
PublisherMumbai Jain Yuvak Sangh
Publication Year1933
Total Pages268
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Prabuddha Jivan, & India
File Size30 MB
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