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________________ २६८ પ્રબુદ્ધ જૈન. त०१७-१-33 हिन्दी विभाग.. पसन्द नहीं आता; फिर भी जैन समाजमें यह आदत कुछ अधिक पुष्ट की गई है, विशेषतः धर्म और सम्प्रदायके विषयों ! इसका फल यह हुआ है कि यदि कोई मनुष्य किसी दूसरे - शिक्षण विकास. - कि सच्चेभी दोषोंको प्रकट करना चाहे तो वह एक तो उसके सच्चा ज्ञानही जैन तप है. सम्मुख कह नहीं सकता है और यदि कहता है तो वह ____ भगवान् महावीर का तप केवल देह दमन नहीं परन्तु टीकापात्र-जिसके कि दोष बतलाये गये हैं उसे केवल निन्दा पूर्णता प्राप्ति के उद्देश से यथार्थ दृष्ठिपूर्वक आचरण में आए समझकर उसकी और देवदृष्टि रखने लगता है इससे सच हुए उपयोगी त्याग का नियम है। इस तप में जिस तरह शुष्क कहकर मार्ग दिखलानेवालोंकी संख्या प्रायः लुप्त हो गई हैं देह-दमन को स्थान नहीं था उसी तरह मोहजन्य शरीर-पालन और हम अपनी संस्थाओंकी त्रुटियों या दोषोंको अच्छी तरह -पोषण को भी स्थान नहीं है। उक्त तप में एक और सम्यक्ज्ञान समझ ही नहीं सकते हैं। और दूसरी और सम्यक्चारित्र दोनोंने उचितस्थान पाया था। जब कोई जैनभिक्षु, जैन गृहस्थ या जैन संस्था किसी शब्दोंका स्पष्टीकरण. जैनेतर विद्वान् या आफिसर को आमंत्रित करती है या यहाँ में कुल शब्दों के अर्थ का खुलासा कर देना चाहता मिलता है, तब वह उससअपना सचा समालोचना सुनना हूं। भगवानके सम्यकज्ञान और आज कुछ काममें आते हए पसन्द नहीं करती; वह उससे केवल प्रशंसाका प्रमाणपत्र विद्या शब्द के अर्थमें फर्क है। इसी प्रकार आजकाल के या सर्टिफिकेट प्राप्त करना चाहती है। इससे वह जैनेतर प्रचलित क्रिया काण्ड या ‘किया' शब्दके अर्थ में और विद्वान् या ओफिसर केवल प्रशंसाके-भलेही वह सची हो भगवान के सम्यकुचारित्रमें भी अन्तर है । सम्यकज्ञान अर्थात् या झुठी-गीत गा दिया करते हैं और ऐसा करनेपर ही. वीतरागत्वमें परिणाम होनेवाला आत्मलक्षी ज्ञान और विद्या उसका जैन समाजमें सम्मान होता है। यदि कोई जैन अर्थात् किसी मी विषयका सिर्फ शास्त्रीयज्ञान, जैसे कि भौतिक... विद्वान् या जैन आफिसर किसीकी सच्ची समालोचना करनेका विद्या, रसायनविद्या आदि । इस प्रकार सम्यक चारित्र अर्थात् प्रमाणिक विचार करता है, तो उसे समाजकी दृष्टिमें स्वार्थी आत्मशुद्धि और क्रियाकाण्ड अर्थात् ब्राह्यलक्षी विधि विधान ! या नास्तिक प्रकट करनेका प्रयत्न होता है । यह मनोदशा विद्या स्वयं सम्यग्ज्ञान: नहीं है; परन्तु, यदि सम्याग्ज्ञान गृहस्थों और साधुओदोनोंके लिए हानिकारक है और दोनोंकी होगा, तो यह विद्या आध्यात्मिक कहलायगी। इसी प्रकार निर्बलताकी निशानी है । जिस तरह झुठे दोष कहना या ब्राह्य क्रियाकलाप या ब्राह्य आचार ये स्वयं सम्यक चारित्र सच्चे दोष भो द्वेषबुद्धिसे कहना अधर्म है, उसी प्रकार केवल नहीं हैं, परन्तु यदि ये सम्यक चारित्रकी भावनामें से. फलमें सच्चे या झुठे गुणों की प्रशंसा सुननेमें खुश होना भी अधर्म सुवास की तरह, बिना प्रयत्न केही उत्पन्न हुए हों, तो । है। इस स्थलमें शिक्षासंस्थाओं, उनकी पद्धतियों और उनके आध्यात्मिक हैं । इतने परसे हम समझ सकेंगे कि वर्तमान संचालकोंके विषयमें जो कुछ कहा जायगा उसमें संभव है विद्या और क्रिया शब्दका सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रके कि टीका यां समालोचनाकी दृष्टि मुख्य मालुम हो; परन्तु इस साथ क्या और कितना सम्बंध है। हम अक्सर प्रचलित दृष्टिको रखनेका मुख्य कारण यह है जो त्रुटियाँ हो उन्है पहले विद्या और क्रियाको सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र के साथ जान लेना और फिर उनको दूर करनेका प्रयत्न करना । इस मिलाकर ऐसा मान लिया करते हैं कि विद्याभ्यास करना तो भाषणमें जो आलोचना की जायगी उसका यह अर्थ हरगिज नहीं सम्यक्ज्ञान प्राप्त करना और ब्राह्य क्रियाओंका आचरण करना है कि उसकी दूसरी उसकी बाजू नहीं है, परंतु उसका यह अभिप्राय तो अवश्य है कि हम प्रगति और सुधार काम सम्यक चारित्र है। यदि हम इस भ्रान्तिसे मुक्त हो जायेंगे तो अनेक बहेमों और उलझनोंसे बच जायेंगे। चाहते हैं इस लिए त्रुटियाँ-दोषोंकी और विशेष ध्यान देने लगें और खुशामदी वाताबरणवाली मनोदशा से मुक्त हो जायें। यह निर्भयः निष्पक्ष समालोचनाके बिना कहने की तो शायद ही जरुरत है कि यदि समालोचना करने सत्य नहीं जाना जा सकता! वालेमें बिनय और समभाव न हो, तो उसकी समालोचना मनुष्यामात्रकी यद्यपि यह एक सामान्य प्रकृति है कि झुठो खुशामद करनेसे भी अधिक हानिकारक सिद्धी होती है। 'अपनी प्रशंसा सुनना उसे अच्छा लगता है और दोष सुनना : -जिनविजयजी. - આ પત્ર મનસુખલાલ હીરાલાલ લાલને જૈન ભાસ્કરદય પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, ધનજી સ્ટ્રીટ, મુંબઈ નં. ૩ માં છાપ્યું છે. અને ગલૂદાસ મગનલાલ શાહે “જૈન યુવક સંધ’ માટે ૨૬-૩૦, ધનજી સ્ટ્રીટ, મુંબઈ ૩, માંથી પ્રગટ કર્યું છે.
SR No.525918
Book TitlePrabuddha Jivan - Prabuddha Jain 1933 Year 02 Ank 11 to 45 - Ank 39 40 and 41 is not available
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrakant V Sutariya
PublisherMumbai Jain Yuvak Sangh
Publication Year1933
Total Pages268
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Prabuddha Jivan, & India
File Size30 MB
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