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________________ २४४ हिन्दी विभाग. प्रसुद्धन. d० २०-५-33 % 3D भोजन मिलता हो वह देश किस तरह प्रति वर्ष करोडों रुपया विदेशी चीजें खरीद कर बाहर फेंक सकता है ? इस कारण प्रत्येक भारतवासी का कर्तव्य है कि उनको अपने अपनी समाजका पुनरुत्थान कैसे हो? दीन और हीन भाइयों की अवस्था पर ध्यान रखते हुये -शेठ अचलसिंहजी. स्वदेशी वस्तुओं का ही इस्तैमाल करना चाहिये और मुख्य[गतांक से चालु.] ता जैनियों का धारण उनका धर्म एकेन्द्री से लेकर पंचेन्द्री (१) बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह और अनमेल-विवाह को रोकना चाहिये। जीव तक दया पालने का है। (२) पर्दा जो स्वास्थ्य, पुरुषार्थ, और गृहस्थ जीवन के . मुझे पूर्ण विश्वास है कि मेरे नवयुवक स्वयम् स्वदेशी वास्ते महा-हानिकारक है उसका सर्वथा बहिष्कार होनाचाहिये। वस्तु का प्रया सी वस्तु का प्रयोग करेंगे और अन्य जनता को करावेंगे। (३) नकता को कतई बन्द करना और विवाह की शारारिक शक्ति बेशुमार फिजूल खर्चियों को दूर करना चाहिये। आज जब मैं जैन जाति के युवकों की शारीरिक (४) जेवर, रेशमी वस्त्र . और हाथीदाँत आदी की स्थिति को देखता हूँ तो मेरे दिल को बडा धक्का लगता है। बनी हुई अपवित्र चीजों में जो फिजल खर्च होता है उसे जबकी उनके मस्तिष्क में विचार होने चाहिये. जबकी रोकना चाहिये। उनके रंगों में खून का जोश होना चाहिये, जब की (५) कुछ लोभी और अज्ञानी पुरुष लडकियों पर उनके चहरे पर चमक और हाथों में कार्य शक्ति होनी रुपया लेते हैं और कुछ धनी पुरुष लडकों पर रुपया माँगते चाहिये तब हम उन्हें क्या पाते है ? उनके शरीर का पूर्णहैं, उसे रोकना चाहिये। . विकाश होने भी नहीं पाता कि उनका शरीर शिथिल होने (६) वेश्यानृत्य आदि बुरी रिवाजे बन्द करनाचाहिये। लगता है. चहरे पर हवाइ उडने लगती है और शीघ्रही वे - स्वदेशी केवल डाक्टरों और वैद्यों के मतलब के हो जाते है। इसका ! देश और समाज के सामने बेकारी की समस्या दिन कारण क्या है ? समाज में फैली हुइ सामाजिक कुरीतियाँ पर दिन बढती जा रही है । हजारों युवक कोलेजों और हमारा रहन-सहन का गलत तरीका और व्यायाम की कभी। स्कूलों से डिग्रियाँ लेकर बेकार फिर रहे हैं, पर उनके लिये मैं नवयुवकों से जोर से अपील करता हूँ कि वे शारीरिक कोई काम नहीं है । अधिकांश व्यवसाय के लोगों की आज आवश्यकता की अब अवहेलना न करें और शक्ति की उपासबसे बडी शिकायह है कि उनके व्ययसायमें अब शिथिलता सना प्रारम्भ कर दें। नियमित व्यायाम करना हर सफलता बढती जा रही है, देश की सम्पत्ति का यदि ह्रास हो तो की कङजो है। इस यग में निर्बल होना सब पापों की जड वहाँ का कोई भी अङ्ग फलफूल नहीं सकता । शरीर का यदि है। निर्बल मनुष्य किसी धर्म का सच्चा पालन नहीं कर कोई भी अङ्ग सबल बनना चाहता है तो उसके लिये यह सकता। । आवश्यक है कि शरीर की केन्द्रीय शक्तिया बढती जाय । साम्प्रदायिक बन्धनों को छोडो ? यदि शरीर में फेंफडा कमजोर है तो धीरे धीरे शरीर के सभी . , , - यह युग संगठन का युग है । सब धर्म और जातियाँ अङ्ग रक्तहीन होकर निर्जीव हो जायेंगे । सारे देश इस साम्प्रदायिक मत-भेद को छोडकर विस्तीर्ण क्षेत्र में आ रही बात का अनुभव करते हैं और वे अपने देश की सम्पत्ति हैं। उस समय भी जैन-जाति क्या पारस्परिक मत-भेद और बढाने में लगे हुये हैं। आज इंगलैण्ड, अमेरिका, रूस सभी मनोमालिन्य में ही लगी रहेगी? क्या यह सम्भव नहीं है देशों में स्वदेशी का युग है। रूस जैसा अन्तर्राष्ट्रीय-बाद राष्ट्रीय बाद कि हम सम्प्रदाय के तंग दायरों को छोड कर महावीर भगको मानने वाला देश भी पञ्चवर्षीय योजना द्वारा देश की वान् के एक झंडे के नीचे आकर खडे हो जायँ । अब तो उत्पादक शक्ति को बढाने में लगा हुआ है । अमेरिका का जैन-जाति एक भाव, एक शक्ति, एक प्रवाह में संयुक्त प्रेसीडेन्ट रूजबेल्ट और इंगलैंड का युवराज प्रिन्स ओफ करनेकी आवश्यकता है। यह बडे हर्ष की बात हैं कि जैनवेल्स भी अपनी अपनी जातियों को स्वदेशी का सन्देश दे जाति के युवकों में यह सद्द-भावना उत्पन्न हो गई है और रहें हैं। इस स्वदेशी के युग में प्रत्येक भारतवासी का भी मुझे विश्वास है कि अब वह समय शीघ्र ही आने वाला है कर्तव्य है कि वह सोचे कि उसे कया करना चाहिये? जिस जब हम जैन-धर्म के अनुयायियों को एक संगठन में जैन देश में चार करोडसे भी अधिक लोगों को एक ही बार सिद्धान्तों का प्रचार करते हुये देखेगें। આ પત્ર મનસુખલાલ હીરાલાલ લાલને જૈન ભાસ્કરેાદય પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, ધન સ્ટ્રીટ, મુંબઈ નં. ૩ માં છાપ્યું છે. અને ગોકલદાસ મગનલાલ શાહે “જૈન યુવક સંધ’ માટે ૨૬-૩૦, ધનજી સ્ટ્રીટ, મુંબઈ ૩, માંથી પ્રગટ કર્યું છે.
SR No.525918
Book TitlePrabuddha Jivan - Prabuddha Jain 1933 Year 02 Ank 11 to 45 - Ank 39 40 and 41 is not available
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrakant V Sutariya
PublisherMumbai Jain Yuvak Sangh
Publication Year1933
Total Pages268
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Prabuddha Jivan, & India
File Size30 MB
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