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________________ २२८ प्रमुद्धन. त०१३-५-33 हिन्दी विभाग. __ सब बुराइयों का मुख्य कारण आपस को फूट, बेसमझी और ना-तजुरबेकारी है। अगर जैनधर्मानुयायी उन्नति करना चाहते है तो उन्हें प्रेमपूर्वक संगठन करने की अत्यन्त अपनी समाजका पुनरुत्थान कैसे हो! आवश्यकता है। . -शेठ अचलसिंहजी. . United we stand, Divided we fall.sula बाबु अचलसिंहजीने अखील भारतवर्षीय स्था. संगठित रूप में हम उभरते हैं और विभाजित रूप में हम ... जैन नवयुवक परिषदके प्रथम अधिवेशनके अध्यक्ष- नीचे की और गिरते हैं। " स्थानसे जो स्पीच दीथी उससे उध्घृत.] जिस तरह एक वृक्षों का समूह बी से बड़ी जोरदार .....: संगठन आँधी का मुकाबिला आसानी से कर सकता है। जिस तरह । अपनी समाजमें संगठन का इतना अभाव है, कि थोडे तन्तु मिलकर एक मजबूत रस्सी बन जाते हैं और इससे समाज के टुकडे २ हो रहे हैं। यहाँ तक कहों बड़े से बडे मस्त हाथी को बाँध लेते हैं; जिस तरह छोटे दस-पाँच आदमी मील कर नहीं बैठ सकते । अगर बैठते २ शब्द बनकर बडे ग्रन्थ बन जाते हैं। जिस तरह छोटी हैं तो बजाय एक्य पैदा करने के एक दूसरे से लडने-झगड २ बूंदें अथाह सागर बन जाता है। ठीक इसी प्रकार अगर ने लगते हैं। कोई भी समाज, जाति, सम्प्रदाय अथवा आज जैन समाज की तमाम बिखरी हुई शक्तियों को एकराज्य या ताकत वगैर संगठन के कभी उन्नति-तरकी-नहीं कर त्रित किया जाय और देश, काल निमित्त के अनुसार काम सकती; भूत और वर्तमान समय में जो साधु-साधु और लिया जाय तो समाज का उद्धार होना कोई बड़ी बात नहीं। . श्रावक-श्रावक में फूट-वैमनस्य और कलह-द्वेष होता रहा है, हमारी संस्थाएँ उससे हजारों गृहस्थों की जैनधर्म से श्रद्धा हट गई है और समाजों व जातियों का उद्धारः वर्तमान समय में नतीजा यह हुआ कि वे आज आर्यसमाजी आदि होगये हैं। संस्थाओं व सभाओं द्वारा हो सकता है। किन्तु संस्थाओं और बहत से भाई अभी तक धर्म-रहित बने हये हैं। अगर की सफलता उनके कार्यकर्ताओं पर निर्भर है। अगर एक यही अवस्था कायम रही तो जिस जैन-समाज की आज संस्था के कार्यकता निपुण, विद्वान, अनुभवी और परिश्रमी हैं तो उस संस्था का कार्य दिनोंदिन उन्नति को प्राप्त होता १२ लाख की संख्या शुमार की जाती है वह धीरे-धीरे । धारधार जाता है और अगर संस्थाओं के कार्यकर्ताओं में उक्त गुणों कम होती जायगी और अन्त में बिलकुल लुप्त हो जायगी। का अभाव होता है, तो वह संस्था बजाय उन्नतिके अव- . .. समझ में नहीं आता कि जिस जैनधर्म का सिद्धान्त नतिको प्राप्त होती जाती है। इतना दिव्य और महान है कि वह स्वप्न में भी किसी से इस समय हमारे समाज में जैन-संस्थाओं की कभी द्वेष करने को महा पाप समझता है. उसके अनुयायी साधु- नहीं, प्रत्येक सम्प्रदाय और फिरको में अपनी २. अलग श्रावक आपस में इस प्रकार का राग-द्वेष करते हैं, जिससे सम्प्रदाय व कोनफरेंस हैं, परन्तु उनमें से कितनी सफलताकि जैनधर्म और समाज की जड पर कुठाराघात होता है। पूर्वक काम कर रही हैं ? इसका कारण कुछ तो संस्थाओंका इसे देखकर अनेक पुरुषों के जी दहल जाते हैं और बहुत दुषित संगठन है और कुछ सच्चे कार्यकर्ताओंकी कभी है। से विचारशील पुरुष इस उच्च और महान धर्म में पैदा होते . वर्तमान समय में गांधीजी के आन्दोलन ने हर जाति हुए भी अपने को एक बडी बुरी अवस्था में पाते हैं, और व समाज में कार्यकर्ताओं (Workers) की काफी तादाद इसे वह एक दुर्भाग्य समझ कर इससे पृथक होते जाते हैं। पैदा कर दी है। और अगर एक समाज अपने नवयुवकों '. यह बडे हर्ष का विषय है कि स्थानकवासी समाज की सक्ति से लाभ उठाना चाहती है तो उसके लिये यह एक स्वर्णमय समय है। इसलिये निम्नलिखित बातें संगठन के पूज्य मुनिवरों ने अब आपस में मत-भेद को मिटाकर । कर पैदा करने के वास्ते अत्यंत आवश्यक हैंअपने साधु-वर्ग को फिर एक सूत्र में बाँध दिया है। आज (१) आपस में प्रेमपूर्वक रहना अर्थात् एक दूसरे की जैन-समाज के लिये यह बडे गौरव की बात है और मुझे जहाँ तक मुमकीन हो मदद करते रहना चाहिये। अगर विश्वास है कि जैनधर्म के अन्य सम्प्रदायावलम्बी भी इसका कोई व्यक्ति किसी किस्म की मदद नहीं कर सकता हो तो अनुकरण करेंगे और सम्पूर्ण जैन-समाज को एक सुसंगठित कम से कम हार्दिक सहानुभूति अवश्य करते रहना चाहिये । समाज बना देंगे। ....... .. ... (अपूर्ण) આ પત્ર મનસુખલાલ હીરાલાલ લાલને જેન ભાસ્કરોદય પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, ધનજી સ્ટ્રીટ, મુંબઈ નં. ૩ માં છાપ્યું છે. અને हास भगनसार शाई रेन यु१५ सव' माटे २६-30, धन हीट, मुं० ३, माया प्रगट यु छे.
SR No.525918
Book TitlePrabuddha Jivan - Prabuddha Jain 1933 Year 02 Ank 11 to 45 - Ank 39 40 and 41 is not available
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrakant V Sutariya
PublisherMumbai Jain Yuvak Sangh
Publication Year1933
Total Pages268
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Prabuddha Jivan, & India
File Size30 MB
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