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________________ २२०: પ્રબુદ્ધ જૈન. हिन्दी विभाग. जैनधर्म का ऐतिहाजिक गौरव –बाबु सुगनचंदजी लुणावत [ बाबु सुगनचंदजी लुणावतने अखिल भारतवर्षीय स्था. जैन नवयुवक परिषद के प्रथम अधि-वेशन के स्वागताध्यक्ष के स्थानसे जो स्पीच दौथी उसका कुछ भाग अपनी समाजको उपयोगी होने से उधृत किया है. - तंत्री हिंदी विभाग ] सज्जनों, हमारे जैनधर्म की उत्पत्ति और इसका इतिहास जैन समाज ही के लिए नहीं वरन् मनुष्यजाति के लिए आशीर्वाद रूप है । विश्व बन्धुत्व और अहिंसा के जिस महान् ध्येय को लेकर इस विश्व - व्यापी धर्म की सृष्टि हुई है, वह ध्येय इतना ऊँचा और इतना पवित्र है कि ज्यों-ज्यों संसार आगे बढता जायगा और वैज्ञानिक खोज ज्यों-ज्यों तरक्की करती जायगी त्यों-त्यों इस ध्येय की महत्ता का संसार स्वागत करता चला जायगा । संसार के सब से बडे महापुरुष ने आज जिस मार्ग से सारे संसारको आश्चर्य चकित कर रक्खा है, मुझे कहने दीजिये, कि वह मार्ग आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व हमारे परमपूज्य तीर्थकर भगवान महावीर ने निश्चित किया था। भगवान महावीर के जीवन और उनके सिद्धान्तों में जैनधर्म की विशालता का बीज छिपा हुआ है, मगर ऐसे विश्वव्यापी और विशाल धर्म की आज क्या स्थिति हो रही है। संसार की आंखों के सामने आज हम ग्यारह लाख जैनियों की क्या स्थिति हैं यह बात वर्णन करते हुए भी हमारा हृदय द्रवीभूत हो जाता है । आज हमारी जगत प्रसिद्ध वीर अहिंसा में से कायरता का जन्म होता है और हम लोग कायर जाति नाम से मशहूर हो रहे हैं। धर्म के विशाल ओर विश्व व्यापी सिद्धान्तों को एक और रख कर हम लोग छोटी २ बातों और छोटे २ मतभेदों के पीछे अज्ञानियों की तरह लडते हुए अपने संगठन और शक्तियों को नष्ट कर रहे हैं । dlo f-4-33 सज्जनों ! अगर यही स्थिति रही तो आप स्वयं सोच सकते हैं कि उन्नति की इस घुडदौड में हम कहाँ तक अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकेंगे । मेरा ख्याल है कि केवल इतिहास के पृष्ठों पर ही हमारा नाम शेष रह जायगा । अत एव यदि जीवित जातियों में हमें अपनी गणना करवाना है, यदि इति - हास के पृष्ठों पर हमारे पूर्वजों के गौरव के साथ २ हमें अपना नाम अंकित करवाना है, यदि संसार के अन्दर सच्चे जैनी बनकर रहना है तो सज्जनों, अब उस पुरानी लकीर को पीटने से काम नहीं चल सकता। संसार में होने वाले परिवर्तनों के साथ २ हमें भी हमारी कार्य-पद्धति (Constitution) के प्रवाह को परिवर्तन करना पडेगा । नवयुवक शक्ति को जागृत करने की आवश्यकता इन परिवर्तनों में हमें सबसे पहले इस बात की जरूरत है कि हम लोग हमारे समाज की नवयुवक शक्ति को संगठित ओर जागृत करें। संसार के इति - हास में नवयुवक शक्ति ने जो महान कार्य सम्पन्न किये हैं वे इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में अङ्कित हैं। मगर आज हमारे देश के नवयुवकों का क्या हाल है ? चारित्र बल और संगठनबल के अभाव की वजह से उनके मुख मण्डल तेजोविहीन हो रहे हैं । उनकी शक्तियाँ जीर्ण हो रही हैं और जो चाहते हैं उनको करने में वे अपने आपको असमर्थ पाते हैं । ऐसी स्थिति में हमारे लिए सब से बडी आवश्यकता इस बात की है कि हमारे जैन नवयुवकों का एक मजबूत संगठन हो जो हमारे नवयुवकों को चरित्र - बल के उच्च आदर्श पर पहुँचाने में सहायक हों। जबतक हमारे नवयुवकों का चरित्र - बल एक उच्च आदर्श पर नहीं पहुँचेगा, तबतक किसी भी प्रकार के सुधार की आशा करना व्यर्थ है । इसलिए एक अखिल भारतवर्षीय जन नवयुवक संघ की स्थापना होगा आवश्यकीय है। इसके कम कम ५०००) नवयुवक सदस्य हों ऐसे जो संघ के एक इशारे पर जहाँ चाहे वहाँ पर एकत्रित हो सके। अगर इतना बडा संगठन हमारे जैन नवयुवकों का होजाय तो समाज के अन्दर बहूत शीघ्र सुधार की धारा प्रवाहित हो सकती है । આ પત્ર મનસુખલાલ હીરાલાલ લાલને જૈન ભાસ્કરાદય પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, ધનજી સ્ટ્રીટ, મુંબઇ નં. ૩ માં છાપ્યું છે. અને ગોકલદાસ મગનલાલ શાહે જૈન યુવક સધ' માટે ૨૬-૩૦, ધનજી સ્ટ્રીટ, મુ ંબઈ ૩, માંથી પ્રગટ કર્યું છે.
SR No.525918
Book TitlePrabuddha Jivan - Prabuddha Jain 1933 Year 02 Ank 11 to 45 - Ank 39 40 and 41 is not available
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrakant V Sutariya
PublisherMumbai Jain Yuvak Sangh
Publication Year1933
Total Pages268
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Prabuddha Jivan, & India
File Size30 MB
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