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પ્રશુદ્ધ જૈન.
हिन्दी विभाग.
-श्री महावीर जयन्ती और जैनोंके कर्तव्य - (ले. पं. विद्यालंकार यतिवर्य श्री हीराचंद्रजी महाराज, मु. काशी.)
'चरम तीर्थंकर शाशन नायक प्रभु महावीरस्वामी का पवित्र जन्म दिन किन को नही आल्हादकारी होगा? जैन संसार में इस प्रसंग पर · आनंद उत्साह धार्मिक भावनाये सर्वत्र सर्व नगर गामो में फलेगी, और संघटित होकर वीर जयन्ती उजवी जायगी, प्रभुवीर हीकि एक जयन्ती उत्सव है जिस में सर्व जैन संप्रदाय प्रभुवीर ही को अपना प्राचीन आदर्श समझते है, और उन्ही के प्रणीत आगम उपदेशो को श्रद्धा के साथ धारण करते है. वीर जयन्ती ही जैनो के लिए ● प्राचीन प्रसंग है जिस में सर्व जैन संप्रदायों की एक सरीखी भक्ति और पूज्य भावपूर्वक संप्रदायिक भेद प्रभेदों को भूल कर एक जगह एकत्रित होते है, जैन मात्र प्रभु वीर पर अनन्य श्रद्धा भक्ति रखता है. क्यों न हो, प्रभु वीर का जन्म ही ऐसा है कि त्रिलोक के जीवों को शान्ति प्राप्त होती है, जिस परम कारुण्य निधि भगवान् महावीर ने त्रिलोक के बन्दनीय पूजनीय सर्वदर्शी हो करके भी विश्वहित के लिये अन्तिम निर्वाण के समय मे भी १६ प्रहर की देशना दी, जडवाद में लुब्ध अज्ञानी जीवों को आत्मानुभव, आत्मस्वातंत्र का अनुभव कराया, चार गति ८४ लक्ष जीवायोनिरूप भवचक्र से अनेक आत्माओं को मुक्तिपद प्राप्त कराया, अनंत जन्म जरा मरण आधि व्याधि उपाधि दुःखों से पीडित आत्माओं को सदुपदेश द्वारा संयमी सदाचारी तपस्वी त्यागी बना कर सदा के लिये अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत पराक्रमरूप आत्मशुद्धि के भोक्ता बन दिये विश्वप्रेममय अहिंसा सत्य और सदाचार का उपदेश देकर सम्राट्, चक्रवर्ती, राजा महाराजा, शेठ, साहुकार से लेकर यावत् गरीब से गरीब प्राणियों का समभाव से कल्याण किया, गुण कर्म पर स्थापित चारो वर्ण व्यवस्था को कुगुरुओने स्वार्थ सिद्ध के लिये अपने प्रभुत्व को टिकाय रखने की लालसा के वशीभूत होकर जन्मतः ज्ञातिवाद को स्थापित कर जप, तप, आदि धर्मीनुष्ठान के अधिकारी ब्राह्मण ही हो सकता शास्त्रादिक का पठन पाठनादि कार्य ब्राह्मण ही कर सकते अन्य इस के अधिकारी नहीं हो
SANTO
ता० ८-४-33
सकते. यदि करें तो अधर्म और घोर पाप होता है, इस पाखंड को तोडकर चारों वर्णोंकी व्यवस्था गुण कर्म पर फिरसे निर्धारित कर त्राणीमात्र के लिये प्रभुवीर ने धर्मशासनके द्वार
खोल दिये. प्रभुवीर नेउ पदेश मात्र देकर के ही इतिकर्तव्यता नहीं करी, किन्तु यथार्थ में उसका पालन में लीया. वर्णाश्रम की मायावी जाल को तोड़कर चतुर्विध जैन संघ रूप तीर्थ की स्थापना कर गृहथो के लिये द्वादशत्रत रूप श्राचक धर्म और साधुओ को पंचमहाव्रत रूप १७ तरह का संयम धर्म का उपदेश देकर आध्यात्मिक राष्ट्रिय, सामाजिक, नैतिक, शारिरिक आदि सर्व दृष्टियों से मनुष्योका कल्याण किया, गृहस्थो का सम्यकत्व मूल द्वादशमत का यथार्थ मनन करने से उपरोक्त विषय के ठीक समझमे आ सकता है, गुण कर्म, और सदाचार पर ही इस तीर्थ का महत्व है, चतुर्विध जैन संघ रूप तीर्थ की सत्संगती से अनेक जीवो का कल्याण हुआ है. ४ गत ८४ लक्ष जीवायोनि के प्राणियों को यही तीर्थ आधार है. इस परसे समझ सकते है कि प्रभुवीरने स्त्रो पुरुषो को सुसंय भी बना कर जगत का अनन्य उपकार किया है. इन्द्रभूति आदि प्रखर विद्वान् ब्राह्मणोने, श्रेणिक कौणिक चेडा, उदायन आदि क्षत्रिय राजा महाराजाओने, जंबु, धन्ना, शालिभद्र, आदि वैश्य महाजनोने, मैतार्य चित्र, संभूति, हरिकेशी, दृढप्रहारी ऐसे अस्पृश्यों को और आर्द्रककुमर सरिखे यवनोंको इसी पवित्र जैन संस्कृतिके छत्र तल नीचे आने पर पवित्र भागवती दीक्षा के अधिकारी होकर जगत पर महान् धर्मोचार्य का काम करके कितनेही सिद्ध बुद्ध हो गये कितनेक भवान्तरो में सिद्धबुद्ध हो गये देवताओको भी वंदनीय पूजनीय और स्तवनीय हो गये. मनुष्यों को पूजनीय हो इस में आश्चर्य ही क्या है ? यह सर्व विषय उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट चर्चा गया है. इस पर से वीर शासन का ध्येय क्या है यह प्रत्येक को स्पष्ट समझ में आ सकता है.. तीर्थंकर नाम कर्म भी " सब जोव करूं शासनरसी ऐसी भावदया मन उल्लसी " इस तरह की आदर्श विशाल भावदया के कारण ही से बंधता है, तीर्थंकर नाम कर्म उदय आने पर समवसरण में १२ परखदाओं के द्वार सभी वर्णों के मनुष्य देव तीर्थंचो, तक के लिये खुले रहते है, समभाव से विश्व कल्याण का उपदेश तीर्थंकर देव करते है, इसी से "जैन धर्म" विश्व धर्म हो सकता है जैन शासन के इस आदर्श को आज जैन संघ कहां तक भूल गया यही इस प्रसंग पर लक्ष्य में लेनेका है.
या पत्र भनसुधा हीससास साधने छैन बारसहिय प्रिन्टींग प्रेस, घनल स्ट्रीट, मुंगन भांछ छे. अने ગોકલદાસ મગનલાલ શાહે જૈન યુવક સધ' માટે ૨૬-૩૦, ધનજી સ્ટ્રીટ, મુંબઇ ૩, માંથી પ્રગટ કર્યું છે.