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________________ AATRAAT ७२ પ્રબુદ્ધ જૈન જૈનધમકી કુઝી કિસકે હાથમે હૈ ? जो जीवमात्रका कल्याण करनेवाला, नीचसे उँच बननेका रस्ता बतानेवाला और आत्मासे परमात्मा होनेका पाठ पढाने वाला है, वही धर्मं सबके ग्रहण करने योग्य सच्चा धर्म हो सकता है, और ये सबबातें जैनधर्ममेंही पाई जाती है. इस वास्ते जैनधर्मको ही यह गारव प्राप्त है कि वह जीवमात्रका सच्चा धर्म कहला सके। संसारके जीव अनादिकालसे संसार. भ्रमण करते हुए नाना प्रकारके दुःख उठा रहे हैं, यहां तक कि अनादिकाल से निगोद जैसी महानीच अवस्था में पढ रहकर अनन्तकाल व्यतीत कर रहे हैं. ओर करते रहे हैं । इस महानोच अवस्थासे उत्थान करके यह जीव परमात्मापद प्राप्त करसकता है और करता रहा है। यही जनधर्मका मुख्य सिद्धान्त है, नीचका उच्च बनाना और उसे उच्चतम कोटितक पहुचा देना, यही जैनधर्मका मुख्य काम है. परंतु शोकके साथ कहना पडता है कि आजकल जैनधर्मने ऐसा विकृतरूप धारण कर लिया है कि वह नोचको उँच बनानेके बदले उच कहलाने वाली जातियों की एक मात्र संपत्ति ही बनगया है. संसारी जीव कंपायवश सदा आपस में लड़ते रहे हैं और जो विजेता रहे हैं वह अपनेको उँच और जिनको जीता है या जिनपर काबू पाया है उनको नीच समझकर उनपर अनेक अकारके अत्याचार करते रहे है । हशियों में तो यहाँ तक दस्तूर था कि जिनको लडाई में जीततेथे, उनको मारकर खाजातेथे और खुशी मनातेथे. बहुतसे मुल्कोंमे उनको बांदी, गुलाम बनाकर ढोरोंकी तरह रखते थे और बेचतेथे. गुलामोंकी बेचनेका यह प्रथा अब दुनियासे उठाई है, और इसको उठा देनेका श्रेय अमेरिका वालोको ही प्राप्त हुआ है. इसकेलिए इनको आपस में महायुद्धतक करना पडा और आखिरकार अंतमें उन्होंने इस घृणित प्रथाको दुनियां से उठाकर ही छोडा. यह श्रेय तो उनको जरूर प्राप्त हुवा, ओर इसके लिये सारी दुनियाँ उनकी आभारी भी रहेगी. परंतु नीच और ऊंचके इस भूतका अमेरिकाके गोरोंके हृदयपर इतना गहरा प्रभाव है, कि वे गुलामोंकी सन्तानोंको, चाहे वे बुद्धि में विद्या, धनमें 'आर सभ्यतादि सभी बातों में चाहे जितने ऊंचे हो गये हों नीच ही गिनते है. और अपने होटलो में, किरायकी मोटरोमें तथा औरभी बहुतसी जगहोंमें उनको स्थान देने तक को तैयार नहि होते हैं। 'मनुष्यका अभिमान उसको आपही अपमानित करदेता है. इसीकारण जिन अमरीका वालोंने इतना श्रेय प्राप्त कियाथा वही अपने इस अभिमानके कारण स्वयं अपमानित हो रहे हैं । इसी प्रकार जो लोग अपने कुलाभिमानके कारण अपने कोही धर्मका अधिकारी मानकर दूसरोंको नीच मानते और उनको धर्मसे वंचित रखना चाहते हैं, क्या वे अपनेको और अपने धर्मको अपमानित नहीं करते है ? www भाईयो ! मैने दिगम्बर सम्प्रदाय में जन्म लिया है और आदिपुराण आदि दिगंबर शास्त्रोंमें यहपदा हैं कि सर्वमनुष्यों की एक मनुष्यही जात है, जिसमें भिन्न भिन्न आजीविका आर free free safe करनेसे भिन्न भेद हो गये है. श्री गुणभद्र ०२४-१२-३२ यद्यपि मैं श्वेताम्बर संप्रदायकी सभी बातें माननेका तैयार नहि हूँ, क्योंकि समयकी हेरफेरसे उनमें भी अनेक विक्रतियां आगई है, तो भी हृदयसे उनका गुणानुवाद गानेसे नाह रह सकता हूं. क्योंकि उनमें और चाहेको कुछ होगया हो, परंतु दिगबरोके समान यह विकार नहि आया है. जिसने जैनधर्मको धर्मका कोटिसे ही निकालकर नीचे गिरा दिया है. व अबतक खुले शब्द में यह मानते है कि शूद्र, यहांतक कि अस्पर्श्य शूद्र, और स्त्री आदि सभी मनुष्य उसी प्रकार मोक्ष पा सकते है और मोक्ष पानेकी कोशिष कर सकते है. जिस प्रकार कोइ ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य, इससे यह कहा जा सकता है कि सच्चे धर्मका जो लक्षण है वह अबतक श्वेतांबरोमें मौजूद है. और दिगंबरोने उसको खोदिया है, और यदि कोइ निशान बाकी रहभी गया है तो जीजानसे उसके मिटानेकी कोशिपकी जा रही है. ऐसी हालत में यदि यह कहा जाय कि इस वक्त धर्मकी कुंजी श्वेतांबरो केही हाथमें रह गई है तो कुच्छ बेजान होगा। भाइयो इस मामलेमें यदि मुझको आपमें ईषी उत्पन्न हो तो कोई आश्चर्य नहि, आपको यह मौका प्राप्त है कि धर्मका ( अनुसंधान भाटे भो. ७१ भुं ) Printed by Lalji Harsey Lalan at Mahendra Printing Press, Gaya Building Masjid: Bunder Road Bombay, 3 and Published by Shivlal Jhaverchand Sanghvi for Jain Yuvak Sangh. at 26-30, Dhanji Street Bombay, 3. स्वामीने तो उत्तरपुराणमें इसपर बहस उठाकर इस प्रकारकी दलीत भी दे डाली है कि चूँकी गाय और घोडेके मेलसे न गर्भ रह सकता है और न घोडा या बेल पैदा हो सकता है. इसी प्रकार अमरूद के बीजसे अनारकापेड उत्पन्न नहि हो सकता इस वास्ते इनकी जाति तो भिन्न भिन्न जरुर है, परन्तु मनुष्यों में तो आपस में यह भेद नहि है, यहाँ तो ब्राह्मणभी चमारीको गर्भधारण करा सकता है और चमारभी ब्राह्मणीको गर्भवती कर सकता है, घोडे और बेलमें व अमरूद और अनारमै तो साफ साफ ऐसा आकारभेद है कि हरकोई देखते ही बता सकता है, कि यह घोडा है और यह बैल है, यह अमरूद है और यह अनार है, परन्तु ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य आदि मनुष्योंकी आकृतिमें ऐसा भेद नहि है. सभीका मनुष्य के समान आकार है, तंब जन्मसे जाति-भेद मानना कैसे हो सकता है ? इसी प्रकार अन्य भी अनेक कथंन दिगम्बर शास्त्रोंमें मोजूद हैं. परंतु आज कलके दिगंबरोका यह दावा है कि जो जन्मसँ ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य हो वही मोक्ष प्राप्त कर सकता है, बहुत ही आश्चर्यजनक मालूम होता है, यही नहि, आजकलतो दिगंबर जैन मुनियोंका वही एक धर्मप्रचार रह गया है कि शूद्रके हाथका औरं जो विधवाविवाह करते है उनके हाथका जल पीना छोड दोगे तभी तुम धर्म ग्रहण करनेके पात्र बन सकोगे और तभी हम तुमारे हाथका आहार ले सकेंगे। देखिये ! जीवमात्रका कल्याण करनेवाला, पतित-पावन यह जैनधर्म कहांसे कहां लेजाकर पटका गया है ! कैसी उसकी दुर्दशा की गई है ! कहांतो दिगंबर जैनधर्मके परमाचार्य सामतमस्वामी यह बताते हैं कि चांडालकी ओलादभी यदि जैनधर्मपर श्रद्धान ले आवे तो देवोंके समान पूजनीय है, और कहा आजकलके हमारे दिगंबर साधु ऐसा भेदभाव फैलाते फिरते है ! ऐसी दशामें यदि विचारवानोंको अपने स्वतंत्र विचार . और धर्मपर होता हुआ यह अन्याय प्रकट करनेका मोका न मिले तो फिर आपही जान सकते है कि उसका परिणाम क्या होगा ?
SR No.525917
Book TitlePrabuddha Jivan - Prabuddha Jain 1932 Year 02 Ank 01 to 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrakant V Sutariya
PublisherMumbai Jain Yuvak Sangh
Publication Year1932
Total Pages82
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Prabuddha Jivan, & India
File Size8 MB
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