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________________ =jäin तपस्या अत्यन्त आवश्यक है। दीक्षा कल्याणक महोत्सव भी देव ही आत्म ध्यान मे लीन होने के लिये सांसारिक मोह ममता, राग मनाते है । द्वेष परिणति को छोड़कर चारित्र मार्ग की ओर प्रवृत्त होते है । बाह्य एवं अभ्यंतर परिग्रह को त्याग करने पर सम्यक चारित्र धारण किया झान कल्याणक--- कठिन तपस्या के द्वारा अनादि काल से जाता है। इसी बात को आचार्य देव " सम्यग्दर्शन झान चरित्राणि इस जीव के साथ जो कर्मों का बन्ध है उसको क्षय किया जाता है। मोक्ष मार्गः" ऐसी जिनेन्द्र देव की वाणी बताते है । ॐ शब्द के ज्योंही तीर्थङ्कर भगवान घातिया कमों का नाश करते है, उन्हें अनन्त उच्चारण में पंच परमेष्ठी का नाम गर्भित है, अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, दर्शन, अनन्त झान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य इस प्रकार अनन्त उपाध्याय और सर्व साधू । जैन धर्म में णमोकार मंत्र को महामंत्र चतुष्टय प्रगट हो जाता है। तीन लोक और तीन काल का सम्पूर्ण माना है। जिसमे इन पंच परमेष्ठी को नमस्कार किया है। चार घातिया झान एक साथ झलकने लगता है। अठारह दोषों से रहित होकर जो कमों का नाश करने वाले अरहन्त भगवान, आठों कर्मों का नाश कर झान प्रगट होता है उसे केवल झान कहते है। ऐसे केवल झानी जिनने मुक्ति प्राप्त करली है वे सिद्ध है। जो संघ का संचालन करने भगवान को हम सकल परमात्मा भगवान मानकर पूजा, अर्चना और वाले पंचाचार तपको तपते है वे सूरी या आचार्य है। जो ११ अंग दर्शन करते है। और १४ पूर्व के पाठी जो मोह माया से दूर रहकर तप करते है वे समवशरण --- सौधर्म इन्द्र का आसन कम्पायमान होता है, पाठक या उपाध्याय कहलाते है। पांच महाव्रत, पांच समिति और इन्द्र अवधि से यह विदित करता है कि प्रभू को केवल झान हो गया तीन गुप्ति इस प्रकार तेरह प्रकार के चारित्र को पालन करने वाले है तत्काल ही वह धनपति कुबेर को भव्य समवशरण की रचना करने साधू कहलाते है। इस प्रकार पंच परम पद में स्थित परमेष्ठी भगवान का आदेश देता है। समवशरण की रचना में बारह सभायें होती है वन्दनीय है। जिसमें चार प्रकार के देव, मनुष्य देव देवाङ्गनाएं मुनि आर्यिकाएं और इस प्रकार भरत क्षेत्र में वर्तमान काल के प्रथम तीर्थकर पशु पक्षी बैठते है । वर्ण भेद, जाति भेद आदि के विना सब एक आदिनाथ एवं अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी २४ तीर्थंकरों के साथ बैठकर भगवान का धमोपदेश सुनते है। भगवान समवशरण समवशरण लगे एवं दिव्य ध्वनि में लोक कल्याण कारी उपदेश के मध्य गन्धकुटी में विराजमान होते है। उनके ऊपर तीन छत्र जो त्रैलोक्यनाथ की उपमा बताते है । भामण्डल जो झान सूर्य की तरह प्रकाशमान होता है। कमल के ऊपर अधर भगवान बिराजमान होते मोक्ष कल्याणक -- पूर्ण शुद्धोपयोग की दशा में जब भगवान है। चारों दिशाओं में चार मानस्तंभ जिसमे जिन बिम्ब बिराजमान शुक्ल ध्यान में लीन हो जाते है तो शेष अघातिया कर्मों का भी होते है उनके दर्शन मात्र से मानियों का मान गलित होकर मिथ्यात्व अर्थात आठों कर्मों का नाश हो जाने पर सिद्ध अवस्था को प्राप्त होते है। अग्निकुमार देव अपने मुकुट से अग्नि द्वारा जब संस्कार करता है रुपी अन्धकार दूर हो जाता है । तो भगवान का शरीर कपूर की उड़ जाता है। स्वर्ग के देवता भगवान धर्मोपदेश --- " ॐ कार ध्वनि सार, द्वादशांग वाणी विमल का निर्वाण कल्याणक मनाने के लिये आते है। निर्वाण कल्याणक " भगवान की दिव्यध्वनि ॐ शब्द से खिरती है। भगवान की वाणी की पूजा कर आनन्द मनाते है। जब महावीर स्वामी को निर्वाण हुआ ग्यारह अंग एवं चौदह पूर्व युक्त होती है जिसमें जैन सिद्धान्त तो देवों ने उत्सव मनाया। उसी परम्परा में आज भी भारत में दिवाली झलकता है। सभी प्राणी भगवान की वाणी को अपनी २ भाषा में पर्व मनाया जाता है। इस प्रकार तीर्थकरों का पंच कल्याणक देवों समझ जाते है ऐसा तीर्थकर की वाणी में अतिशय है दिनरात भगवान द्वारा सम्पादित किया गया था । नूतन मन्दिर निर्माण कर जो जिन का धर्मोपदेश होता है। इस बात को झेलने वालों को गणधर कहते बिम्ब विराजमान किये जाते है उनकी प्राण प्रतिष्ठा हेतु पंच कल्याण है जैसे भगवान महावीर के प्रमुख गणधर गौतम गणधर हुआ है। प्रतिष्ठा के लिये निम्न प्रतिष्ठापाठ उपलब्ध है। समवशरण में सभी लोग परस्पर राग द्वेष को छोड़कर शान्त एवं विशुद्ध परिणामों से उपदेश सुनते है । अहिंसा, सत्य, अचौर्य, 1) प्रतिष्ठापाठ -- जयसेन वसुनन्दि आचार्य, ब्रह्मचर्य, एवं अपरिग्रह इन पांच सिद्धान्तों को भगवान ने मुनियों का 2) प्रतिष्ठातिलक -- नेमिचन्द आचार्य, महाव्रत और गृहस्थों का अणुव्रत बताया है। सम्यग्दर्शन, सम्यक् ___3) प्रतिष्ठापाठ -- पं. आशाधरजी, झान और सम्यक् चारित्र को रत्नत्रय धर्म बताकर मोक्ष मार्ग की ओर 4) पंचकल्याणकदीपिका --ब्र. शीतलप्रसादजी, प्रवत्त होने की बात बताई। तत्वों की पूर्ण श्रद्धा एवं देव, शास्त्र, गरु दिगम्बर जैन समाज में सर्वत्र उक्त प्रतिष्ठापाठों के आधार पर ही की उपासना से सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। पूर्ण आत्म झान और पचकल्याणक प्रतिष्ठाएं कराई जाता है । प्रतिष्ठाचाय सयमा आर मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय एवं केवल झान को सम्यक्झान । शास्त्रों का झाता होना चाहिये । अंग भंग या रोगी प्रतिष्ठाचार्य एवं बताया है। प्रतिष्ठाकारक प्रतिष्ठा के लिये वर्जित बताया है । 146 Jain Education Intemational 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525501
Book TitleThe Jain 1988 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNatubhai Shah
PublisherUK Jain Samaj Europe
Publication Year1988
Total Pages196
LanguageEnglish
ClassificationMagazine, UK_The Jain, & UK
File Size8 MB
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