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प्रतिष्ठा का महत्व
जैन समाज में सबसे बड़ा महोत्सव प्रतिष्ठा का होता है। पंचम काल में भरत क्षेत्र में तीर्थकरों का जन्म नहीं होता है। चतुर्थकाल में ही तीर्थंकरों के पंच कल्याणक देवो, मनुष्यों द्वारा मनाये जाते है उसी परम्परा में इस काल में तीर्थकर की मूर्तियों की प्रतिष्ठा हेतु पंचकल्याणक किये जाते है और जैन लोग मूर्तियों को साक्षात् भगवान मानकर दर्शन और पूजन करते है । तीर्थंकर भगवान की पूजा करने वाले को स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है जैसा कि दर्शन मात्र से भी कल्याण होना बताया है
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दर्शनं देव देवस्य दर्शनं पाप नाशनम् । दर्शनं स्वर्गसोपानं दर्शनं मोक्ष साधनम् ॥
अर्थात् -- उन प्रतिष्ठित मूर्तियों के दर्शन करने से जन्म २ के पाप नाश होकर स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है। आचार्य कहते हैं कि भगवान के दर्शन नहीं करने वाला मनुष्य पशु के समान माना जाता है ।
जैन समाज में स्थान २ पर मन्दिरों का निर्माण कर मूर्तिओं की प्रतिष्ठा की जाती है। प्रतिष्ठा महोत्सव में भाग लेने वाले, दान देने वाले, मन्दिर बनाने वालों को तीर्थकर गोत्र का बंध होता है ।
भगवान के पांच कल्याणक होते है। गर्भ कल्याणक, जन्म कल्याणक, तप कल्याणक, ज्ञान कल्याणक और मोक्ष कल्याणक ये पांचो कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में होते है। इन्द्र इन्द्राणियों के रूप में भक्त जन भगवान का कल्याणक महोत्सव मनाते है। भगवान की भक्ति में अनन्त शक्ति है और उस अनन्त शक्ति से मुक्ति प्राप्त होती है। इसी भक्ति के कारण जैन लोग तीर्थङ्गरों का पंचकल्याणक मनाकर बड़ा भारी उत्सव करते है ।
गर्भ कल्याणक
सौधर्म इन्द्र अवधि ज्ञान से तीन लोक के स्वामी तीर्थङ्कर का भूलोक में अवतरित होने की बात कुबेर को बताता है। कुबेर नगरी की रचना कर रत्नों की वर्षा करता है। तीर्थकर की माता को सोलह स्वप्न आते है उसका फल तीर्थकर के पिता बताते है कि तीन लोक के स्वामी भगवान का अवतार होगा । ५६ कुमारिकाएं माता की सेवा करती है । अष्ट कुमारी देवियां सुगन्धित वस्तुओं द्वारा माता का गर्भ शोधन करती है । रहस्य भरे सिद्धान्त के प्रश्न पूछ कर माता के गर्भ मे बालक होने का निश्चय करती है। जिस तीर्थङ्कर की प्रतिष्ठा होती है उसी के नाम से गर्भकल्याणक की क्रियाएं की जाती है जैसे आदिनाथ, शान्तिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर भगवान आदि ।
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जन्मकल्याणक
प्राची के गर्भ से सूर्य के समान जननी के गर्भ में धर्म सूर्य जिनेन्द्र भगवान का जन्म होता है, तीनों लोको में आनन्द छा जाता है । भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी, और कल्पवासी देवों के भवनों में अनहद बाजे बजते है। भगवान के जन्म होते ही पुनः सौधर्म इन्द्र का आसन कम्पायमान होता है। उसकी अवधि में बात याद आती है कि " संभावयामि नेदृक्षं प्रभावं भुवनत्रये प्रभु तीर्थङ्करादन्यम् " भरत क्षेत्र में तीर्थङ्कर भगवान का जन्म हुआ है। कुबेर को आज्ञा देता है कि" नगर की रचना करो, रन वृष्टि करो " सौधर्म ऐरावत हाथी रत्न । पर बैठकर नगर की परिक्रमा करता है। फिर राजा के महल में जाकर शची द्वारा प्रसुतिगृह से सौधर्म तीर्थङ्कर बालक को लाकर पाण्डुक शिला पर ले जाकर १००८ कलशों से अभिषेक करते है। सौधर्म भगवान को ले जाते है । ईशानइन्द्र प्रभू पर छत्र लगाते है । सनत्कुमार और महेन्द्र प्रभू को चंवर ढोरते हुए आते है। भगवान को पालने में झुलाते है। बालक्रीडा करते है।
राज्याभिषेक
भगवान के राज्याभिषेक के समय ३२ हजार मुकुट बद्ध राजा देश विदेश से आकर अपनी भेट चढ़ाते है । शची क्षीर सागर का जल लाकर इन्द्र को देती है। उस पवित्र जल से राज्याभिषेक होता है । तीर्थङ्कर के पिता राजतिलक कर राजमुकुट भगवान को अर्पण करते है ।
भगवान धर्मनीति + राजनीति का उपदेश देते है। वैराग्य-आदिनाथ को नीलांजना का नृत्य और उसकी मृत्यु पर संसार की असारता का अनुभव होता है। लौकान्तिक देवों द्वारा सम्बोधन करने पर वैराग्य को प्राप्त होते है ।
तप कल्याणक- - भगवान की पालकी को उठाकर लौकान्तिक देव तपोवन में ले जाते है जहाँ भगवान ध्यानस्थ बैठकर अपने ही हाथों से पंच मुष्ठी केशलौंच करते है ।
सिद्धों की साक्षी में मुनि दीक्षा ग्रहण करते है। ज्योंही भगवान दीक्षा लेते है उन्हें मन:पर्यय ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है । तपश्चरण के फलस्वरूप चार घातियाँ कर्मो का नाश हो जाता है। पूर्ण संयमित जीवन व्यतीत करते हुए निर्जन वन में घोर तपस्या करते है। आहार चर्या के लिए नगर में आते है जैसे भगवान आदिनाथ को छः माह तक आहार नहीं मिला तत् पश्चात् राजा श्रेयाँस के यहाँ एक वर्ष बाद अक्षय तृतीया के दिन इक्षुरस का आहार होता है। जैन धर्म में त्याग और तपस्या का बहुत महत्व है। तीर्थङ्कर भगवान बनने के लिये भी
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