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SHRUTSAGAR
January-2020 संपादकीय
रामप्रकाश झा श्रुतसागर का प्रस्तुत अंक आपके करकमलों में समर्पित करते हुए हमें अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है। इस अंक में आत्मा के वर्तुल को दर्शाने वाली योगनिष्ठ आचार्य बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म.सा.की अमृतमयी वाणी के अतिरिक्त चार अप्रकाशित कृतियों को प्रकाशित किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त वाचक अन्य उपयोगी स्तम्भों का भी अवलोकन करेंगे।
प्रस्तुत अंक में सर्वप्रथम “गुरुवाणी" शीर्षक के अन्तर्गत आत्मा के अनन्त वर्तल के विषय में पूज्य आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म. सा. के विचार प्रस्तुत किए गए हैं। द्वितीय लेख राष्टसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के प्रवचनों की पुस्तक Awakening' से संकलित किया गया है, जिसमें गुरु-शिष्य सम्बन्ध के ऊपर प्रकाश डाला गया है ।
अप्रकाशित कृति प्रकाशन के क्रम में सर्वप्रथम पूज्य गणिवर्य श्रीसुयशचन्द्रविजयजी म. सा. के द्वारा संपादित प्रभु पार्श्वनाथ के दो अप्रकाशित स्तवनों का प्रकाशन “पार्श्वनाथ प्रभुना बे अप्रगट स्तवनो” के नाम से किया जा रहा है। प्रथम कृति के कर्ता मुनि विमलविजय-शिष्य तथा द्वितीय कृति के कर्ता मुनि लालविजयजी हैं। इन कृतियों में भगवान पार्श्वनाथ के गुणों का वर्णन तथा नवकारशी, पच्चक्खाण, सामायिक आदि में आलस्यादि कारणों से होनेवाले दोषों का वर्णन किया गया है। तृतीय कृति के रूप में पूज्य साध्वीजी दर्शननिधिश्रीजी म.सा. के द्वारा सम्पादित “अवन्तिसुकुमाल सज्झाय” का प्रकाशन किया जा रहा है। इस कृति के कर्ता श्री मेरुविजयजी ने प्रस्तुत कृति में अवन्तिसुकुमाल के जीवनचरित्र और उनकी साधना का सुन्दर वर्णन किया है। चतुर्थ कृति के रूप में श्रीमती जिज्ञाबेन शाह के द्वारा सम्पादित “माणसभव उत्पत्ति भास" का प्रकाशन किया जा रहा है। इस वैराग्यपरक कृति के कर्ता नन्नसूरि ने मानवजीवन में होनेवाले दुःखों का वर्णन करते हुए आत्मकल्याण हेतु देव-गुरु और धर्म के आलम्बन हेतु प्रेरित किया है। __ पुनःप्रकाशन श्रेणी के अन्तर्गत जैनधर्म प्रकाश, सुवर्ण महोत्सव विशेषांक, चैत्र, सं. १९९१ में प्रकाशित “स्तुति-स्तोत्रादि-साहित्यमा क्रमिक परिवर्तन” नामक लेख का प्रथम अंश प्रकाशित किया जा रहा है, इस लेख में स्तुति-स्तोत्रादि साहित्य का प्रारम्भिक स्वरूप तथा उसके क्रमिक विकास के ऊपर प्रकाश डाला गया है।
गतांक से जारी “पाण्डुलिपि संरक्षण विधि" के अन्तर्गत ज्ञानमंदिर के पं.श्री राहलभाई त्रिवेदी द्वारा पाण्डुलिपियों के क्षतिग्रस्त होने के प्राकृतिक कारणों के ऊपर प्रकाश डाला गया है।
पुस्तक समीक्षा के अन्तर्गत आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा से प्रकाशित “रासपद्माकर, भाग-४” पुस्तक की समीक्षा प्रकाशित की जा रही है। इस पुस्तक में रासपरक प्राचीन कृतियों का संग्रह कर प्रकाशित किया गया है।
हम यह आशा करते हैं कि इस अंक में संकलित सामग्रियों के द्वारा हमारे वाचक अवश्य लाभान्वित होंगे व अपने महत्त्वपूर्ण सुझावों से हमें अवगत कराने की कृपा करेंगे।
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