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श्रुतसागर
अप्रैल-२०१९ बहु तप जप संयम धरी, अणसण करीअ ऊचार रे। पुहुता रे देवविमानमां, लहसइ सुख ऊदार रे
महा... ॥१८॥ प्रवचनमांहिं एह सूरिनु, संखेपई संबंध रे। उपदेशमालानी वृत्तिमां, विस्तारइं ए प्रबंध रे
महा... ॥१९॥ ते वांची रे निज चित्ति धरी, संखेपइं लवलेस रे। थूलभद्रसूरि-सीस गाईउ, एहना गुण छइ असेसरे महा... ॥२०॥ वइरागी गुणसागरू, महागिरिसूरि सुजाण रे। राजरत्न वाचक गुण स्तवई, प्रहि ऊगतई सुविहाण ६रे महा... ॥२१॥
॥ इति महागिरिसूरि सज्झायः ॥ पंडित श्री कमलराजगणि लखितां शुभं भवतु ॥ संवत् १६९५ वर्षे ।
५५. घणां, ५६.सवार.
श्रुतसागर के इस अंक के माध्यम से प. पू. गुरुभगवन्तों तथा अप्रकाशित कृतियों के ऊपर संशोधन, सम्पादन करनेवाले सभी विद्वानों से निवेदन है कि आप जिस अप्रकाशित कृति का संशोधन, सम्पादन कर रहे हैं अथवा किसी महत्त्वपूर्ण कृति का नवसर्जन कर रहे हैं, तो कृपया उसकी सूचना हमें भिजवाएँ, जिसे हम अपने अंक के माध्यम से अन्य विद्वानों तक पहुँचाने का प्रयत्न करेंगे, जिससे समाज को यह ज्ञात हो सके कि किस कृति का सम्पादनकार्य कौन से विद्वान कर रहे हैं? इस तरह अन्य विद्वानों के श्रम व समय की बचत होगी और उसका उपयोग वे अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियों के सम्पादन में कर सकेंगे।
निवेदक सम्पादक (श्रुतसागर)
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