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अप्रैल-२०१९
नगगई... ॥७॥
नगगई... ॥८॥
नगगई... ॥९॥
नगगई... ॥१०॥
नगगई... ॥११॥
नगगई... ॥१२॥
श्रुतसागर जितसत्रुनुं पूरव भवई, हुं नारि चीतारि। करि वीवाह मुझसिउं ईहां, पहिलं प्रेम संभारि साधु वचने हुं इहां रही, विद्याधर-बाल। तात माहरउ व्यंतर अछइ, करइ सार संभाल वचन सुणी जाति स्मरउ, राजा ततकाल। पूरव प्रीतिइं परणीउ, कुमरी भूपाल चरित्र रासथी प्रीछयो, सघलउ अधिकार। संखेपइं सज्झायमां, कहिउ एह विचार प्रगनिप्ती विद्या ग्रही, आव्यि(वि)उ निज ठामि । प्रति दिन जावइ आववइं, हूउं नगगई नाम केता दिनि तिहां रही प्रिया, व्यंतर आदेसि । सुंदर नगर वसावीउं, थापी भुवन प्रदेसि पंच विषय सुख भोगवइ, एक दिनि राजान । क्रीडा करवा वनि गयु, परिकर असमान मारग वचि एक पेखीउ, अभिनव सहकार। कुंपलि मांजरि पत्रनु, नवि दीसइ पार राजाइं एक मंजरि ग्रही, नीसरतां हाथि। एक एक मांजरि कुंपला, लीधां सघलइ साथि काष्टभूत आंबउ कीउ, फूल कुंपल बोडि। वलतां नगगई पूछीउ, कहुं एसी खोडि ए सरूप आंबा तणउं, देखी चिंतइ राय। अथिर सोभा एह देहनी, खिणमांहिं जाय अथिर मानव- आयुर्खा, डाभ-अणी३३ जिम उस । अथिर राजरिद्धि संपदा, डाहुन करइ सोस४ राजरिद्धि सवि परिहरी, लीधउ संयम भार । दीधउ सासनदेवता, साधुवेस विचार ३२. प्रज्ञप्ति विद्या, ३३. दर्भनो अग्रभाग, ३४. खेद
नगगई... ॥१३॥
नगगई... ॥१४॥
नगगई... ॥१५॥
नगगई... ॥१५(१६)॥
नगगई... ॥१७॥
नगगई... ॥१८॥
नगगई... ॥१९॥
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