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जूनुं नर्मगद्य पा. ३८०-८१ [सं. १९२०]; 'नर्मपत्रावली' गुजराती-दीवाळी सने १९२३ पृ ७ ‘छउं’ अने ‘छु' नो सहप्रयोग [सं. १९२५] आ प्रमाणे वाक्यरचनामां, विभक्तिदर्शक अनुषंगी शब्दो (Post - positions) इत्यादिमां अणदेखातां य विकार तो थता ज रहे छे; तो पछी चारसें वर्षना गाळामां आ रीते शुं खास नहि जेवा ज फेरफार थया हशे? आ संदेह कोई पण भाषाचिकित्सकने मन नानोसूनो नथी । आपणने प्रेमानंदादिनां काव्यो पण मूळ हाथप्रतोने चोकसाईथी वापरी संपादित करी आपवामां आव्यां नथी एटले भाषाना अदृष्ट अने झीणा फेरफारोनी तारवणी काढवी जरा आपणने मुश्केल छे। में संपादन करवा धारेला मृगाङ्कलेखा रास (पंदरमी सदीना अंत के सोळमीनी शरूआतमां लखायलुं वच्छ कविनुं काव्य) खातर सोळमा अने सत्तरमां सैकानी नवेक प्रतो तपासी हती । तेमांथी हुं जोडणीना केटलाक विकल्पो नीचे आपवा मांगु छु: दा. त. इसिइ अइसइ, इसे, इशइ, इशि= हिं. ऐसी; गु. आवी; सांभलु, सांभलो, सांभलउ, सभलो = गु. सांभळो; आज्ञार्थ बीजो पुरुष अनेक वचन; सुणे बधी य हाथप्रतोमां = अप्रभ्रंश सुणि आज्ञार्थ. बीजो पु. एकवचन गु. 'सुण्य' के 'सुण'; केटलीक वार सुणि पण मालूम पडे छे । जूनी हाथप्रतोमां आ प्रकारना जोडणीना विकल्पो वारंवार मालूम पडे छे । आम बसो वर्षना गाळामां पण केटकेटला फेरफार थता जाय छे।
October-2018
लखाण तो उच्चारनुं कामचलाउ प्रतीक छे; अने जूनां लखाण उपरथी ज उच्चारनो मेळ बेसाडवो ए वसमुं छे; अइ अने अउ ने माटे सोळमा सैकानी अने सत्तरमानी शरुआतनी हाथप्रतोमां करइ, करि, करे तथा करउ करु अने करो एम लखाणो दीठामां आवे छे। अइ अने इ नो प्रयोग ए करतां वधारे होवाथी अनुमान एम कराय के ए स्वरयुग्मनो उच्चार ए अने इ नी वचटनो हशे, आथी करीने कोइ लखाणमां ए नी बहुलता होय ने कोइमां अइ के इ नी बहुलता होय तेथी बे बोलीओ (dialects)नुं जुदापणुं तर्कसिद्ध थतुं नथी ।
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एक स्थळे 'नगीचाणाना पावळीआ' वाळा लेखमां रा. शास्त्री कहे छे के “करइ परथी काठिआवाडमां करे. करइ उपरथी मारवाडना संपर्कवाळी गुजराती भाषामां (त्रीजी भूमिकामां) करि रूप स्थापित थयुं, करि परथी करे ऊतरी शके ज नहि । आम त्रीजी भूमिकामां रूपोनो त्याग करी तल गुजरातना कविओये जुना काळथी स्वीकाराइ चूकेला काठिआवाडना करे रूपने स्वीकारी लीधुं.” आ दलील आगला फकरामां बताव्या प्रमाणे टकी शकती नथी। बीजुं बिजि, शनि, वारि, तसउ, नोमि,