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कक्कावलि
आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी कपटी कपटी शं कहो छो, कपट न जाणे कोय; कर्मनी साथे कपट करो तो, साचा कपटी सोय; सुणजो वात हमारी लोक, शाने मनमां फूलो फोक ?
॥१॥ खाखी खाखी शुं कहो छो, सहुनी थाशे खाख; साचा खाखी अंतरना जे, जाणे माया राख.
सुणजो०॥२॥ गांडो गांडो शुं कहो छो, गांडा सहु कहेवाय; भेद छेद आतमना ज्ञाने, समजु तेह गणाय.
सुणजो०॥३॥ घारी घारी शुं कहो छो, घारी समता लेख; समता स्वादे सुखिया संतो, अंतरमां ते पेख.
सुणजो०॥४॥ चाकर चाकर शुं कहो छो, चाकर नर ने नार; करे चाकरी परमातमनी, साचो चाकर धार.
सुणजो०॥५॥ छानु छानु शुं कहो छो, छा सत्य न क्यांय मायाथी छानो छे आतम, शाने मन हरखाय.
सुणजो० ॥६॥ जाति जाति शुं कहो छो, जात न भात न कोय; जन्मीने जन्मे नहीं जे जन, जाति तेनी जोय.
सुणजो० ॥७॥ झाझ झाझ एम शुं कहो छो, साचुं नहीं छे झाझ; देह झाझ परगट पेखो आ, पामो शिवपुर राज.
सुणजो० ॥८॥ टेंटें टेंटें शुं करो छो, टळवळता सहु जाय; स्थिरता आतममां जेनी छे, टेंटे तस नहि थाय.
सुणजो०॥९॥ ठोठ ठोठ एम शुं कहो छो, सहुने ए छे छाप; अंतरमा परमातम परखे, नहि ते ठोठ अपाप.
सुणजो०॥१०॥ डाह्या डाह्या शुं कहो छो, डाह्या गांडा सर्व; निर्लेपी निर्मोही डाह्या, कदि न करता गर्व.
सुणजो०॥११॥ ढढ्ढो ढढ्ढो शुं कहो छो, सहु ढढ्ढा शिरदार; भूल्या मोह मायामां जे जन, साचा ढढ्ढा धार.
सुणजो०॥१२॥
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