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कृति परिचय
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January-2017
भारतीय-साहित्य में शिक्षाप्रद रचनाएँ प्रचुर परिमाण में उपलब्ध होती हैं। इन रचनाओं में दीर्घ अनुभव, जीवन की साधना और विश्वमैत्री-मूलक भावनाएँ उद्दीपित होती हैं। यों भी श्रमण परम्परा आध्यात्मिक जीवन की उन्नति में विश्वास करती आयी है और आज के इस अर्थमूलक युग में भी कर रही है। सीमित शब्दावली में प्रकट किये गये गंभीर भावों को भले ही समझने या आत्मसात् करने में समय लगे पर उनका प्रभाव सापेक्षतः अधिक व्यापक और स्थायी होता देखा गया है।
महोपाध्यायजी महाराज की कवित्व शक्ति का परिचय अनेक विधाओं में मिलता है। चैत्यवंदन, स्तुति, सज्झाय, स्तवन, पद, अष्टक, चोढालिया आदि कृतियों में सुंदर भाव गुंफन सरस प्रवाह अस्खलित रूप से बहा है। इसी क्रम में हितशिक्षा द्वात्रिंशिका लघ्वाकार वाली रचना होते हुए भी भावों की अपेक्षा से अमूल्य कृति है। इस कृति में मोह अहंकार, तृष्णा, काम आदि का त्याग करने का विधान करते हुए जिनवचन पर श्रद्धा कर समकित प्राप्त करने पर ज्ञानानंद प्राप्ति का फल बताया है।
प्रथम श्लोक में केवल लघु अक्षरों का उपयोग करते हुये ऋषभदेव प्रभु की स्तुति की गई है। जिसमें वर्ण लालित्य सहज प्रकट हुआ है।
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कहा भी है- जो हितकर बात है, वह अवसर देखकर कहनी ही चाहिए, जिससे सुयोग्य आत्मा को लाभ हो। इससे योग्य आत्मा में आत्म- हित की भावना जागृत हो सकती है। अर्थ- काम की वासना बढाने वाले, अर्थ- काम को उपादेय मानने वाले, अर्थ-काम से कल्याण है, ऐसा उपदेश देने वाले न देव हैं, न गुरु हैं और न ही वो धर्म है। मोक्ष हेतु धर्म का आचरण आवश्यक है। अत: अन्य कामनाओं का त्याग कर एक मात्र मोक्ष -साधक धर्म के आचरण में ही तत्पर बनो। जो आत्माएँ मोक्ष-साधक धर्म के आचरण में उद्यमशील बनेंगी, वे आत्माएँ क्रमश: दु:खरहित सम्पूर्ण शाश्वत मोक्ष सुख को प्राप्त करेंगी। प्रति परिचय
खरतरगच्छ साहित्य कोश क्रमांक - १८६८ में अंकित प्रस्तुत हितशिक्षा