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हितशिक्षा द्वात्रिंशिका
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संपा. आर्य मेहुलप्रभसागर
कर्ता परिचय
समर्थ विद्वान पूज्य महोपाध्याय श्री क्षमाकल्याणजी म.सा. ने वाचक अमृतधर्मजी म. से वि.सं. १८९२ दीक्षा ग्रहण की। उनके गुरु वाचकश्री अमृतधर्मजी म. थे। खुशालचंद से मुनि क्षमाकल्याण बने ।
संवत् १८५५ में गच्छनायक आचार्य श्री जिनचंद्रसूरिजी महाराज ने वाचक पद प्रदान किया था । गच्छनायक आचार्य श्री जिनहर्षसूरिजी महाराज ने संवत् १८५८ में उपाध्याय पद से अलंकृत किया ।
महोपाध्यायजी ने जीवन काल में निम्नोक्त स्थानों पर प्रतिष्ठा करवाई । अजीमगंज, महिमापुर, महाजन टोली, देवीकोट, देशणोक, अजमेर, बीकानेर, जोधपुर, मंडोवर आदि । साथ ही संवत् १८४८ में पटना में सुदर्शन श्रेष्ठि के देहरे के समीप गणिका रूपकोशा के आवास स्थान पर जमींदार से खरीद की हुई जगह में स्थूलभद्रजी की देहरी भी उनके उपदेश से बनी थी। उन्होंने ही उसकी प्रतिष्ठा की थी। जिसका उल्लेख उनके द्वारा रचित स्थूलभद्र गीत में उपलब्ध है। महोपाध्याय श्री क्षमाकल्याणजी महाराज के छः शिष्यों के नाम प्राप्त होते हैं जो इस प्रकार है- १. मुनि कल्याणविजय, २. मुनि विवेकविजय, ३. मुनि विद्यानन्दन, ४. मुनि धर्मानंद, ५. मुनि गुणानंद और ६. मुनि ज्ञानानंद ।
श्री क्षमाकल्याणजी महाराज जीवन के उत्तरकाल में वि.सं. १८७३ के भाद्रपद कृष्ण पंचमी को जैसलमेर स्थित ज्ञानानंदादि मुनियों को पत्र दिया था उसमें लिखते हैं- ‘व्याख्यान उत्तराध्ययन १४वां अध्ययन बांचे है, समरादित्य चरित्र पाना ८५ भया, चौथे भव के १ पानो बाकी है' इत्यादि। इससे अंतिम समय में भी उनकी जिनशासन एवं श्रुतज्ञान की सेवा स्पष्ट परिलक्षित होती है।
७२ वर्ष की उम्र में उनका स्वर्गवास बीकानेर में वि.सं. १८७३ पौष वदि १४ को हुआ था। आगामी ता. २८ दिसम्बर २०१६ को उनके स्वर्गवास के दो वर्ष पूरे हुए हैं।
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