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SHRUTSAGAR
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यो सुद्ध आहार, सचित्त सवि परिहार ।
इणि परि रह्या दोइ वरस, अनुमति लइ मन हरसि ॥५२॥
चारित्र ओछव करेई, सुरपति दिव्य मेलेई । शिबिका बिसी आवइ, वडवृक्ष हेठलि ठाव ॥५३॥
मागशिर दसिमि अंधारी, लेई दीख (दीक्षा) साधारी । तप कीउ तिहां छट्ठ, पारणइ खीर विसट्ठ ॥५४॥
ब्राह्मण बहुल ते लेई, सुर पंच दिव्य करेई । ब्राह्मण पूरव मित्र, सुणइ जन लेई चारित्र ॥५५॥
घरणी जंप ए गहिला, तम्हो नवि आव्या ए वहिला । तुझ मित्र दान ज दीधुं, वरस लगइसु इ प्रसिधुं ||५६||
जन्मदरद्री अ तुंह, कां सिर भागु ए मुंह । तुझ नीलज नहीं लाज, जाई सेवी जिनवर आज ॥५७॥ इणि परि नारीइ ताजिउ, गयु जिनवर कन्हई लाजिउ । आपओ करी अ पसाय, तुं जगबंधव ताय ॥ ५८॥
तुं जलधर परि वूठओ, भाग्य हतूं तस तूठओ । जिन मनि करुणा धई, देववस्त्र अर्द्ध करेई ॥ ५९॥
लेई तूंनारा घरि पुहुतु, ते कहइ वली जाए वहि तु । बीजु खंड वली लावि, करीइ अखंड सुभ भावि ॥६०॥
जिनवर विहार करता, कंटक रहिउ विलगंता । पूठई जोउं ए जाम, हीइ विमास ताम ॥ ६१ ॥
कंटक बहु लइए सासन, होसि बहु मत भासन । विप्र आविअ लीधउं, तेहनुं कारय सीधउं ॥६२॥
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October-2015