________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
12
SHRUTSAGAR
JUNE - 2014 गृहस्थ उत्कृष्ट श्रावक बनकर शुभाचरण के स्थान पर अब शुद्धाचरण का अभ्यास करने लगता है।
अपना ममत्व संसारी वस्तुओं से हटाने लगता है। गृहस्थी में रहते हुए भी गृहस्थ न होने का अहसास ही वानप्रस्थ आश्रम की दशा है। जिस प्रकार छः खण्ड के चक्रवर्ती महाराज भरत को घर में ही वैरागी कहा जाता था। वे संसार में रहते हुए ब्रह्मज्ञान के साधक थे। (४) संन्यास आश्रम
संन्यास का सामान्य शब्दार्थ है प्रकट और अप्रकट वस्तुओ में मोह या ममत्व रहित न्यास (Trusteeship) भाव। लाभ-हानि, राग-द्वेष जैसे विकारों से परे होकर अपनी आत्मा के चिन्तन में मगन होता है। वह मानव जीवन का अंतिम एवं सर्वोत्कृष्ट आश्रम है संन्यास । सांसारिक वृत्तियों के पूर्ण निरोध की साधना इस आश्रम में रहकर की जाती है।
मोह-माया व राग-द्वेषादि से दूर वह परमात्म प्राप्ति का पुरुषार्थ एकाग्र होकर करता है तथा परम सिद्धि को प्राप्त करता है। मनु ने मानव जीवन को नीतिमय व धर्माचरण के अनुरूप बनाने हेतु निम्न लिखित दस गुणों को आवश्यक माना है -
धृतिः क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रिय-निग्रहः। धीविद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।।
धृति का अर्थ है धैर्य, सन्तोष, दृढ़ता, आत्मनिर्भरता स्वावलम्बन । क्षमा का अर्थ है समर्थ होकर भी दूसरों के अपकार को सहन करना । दम-मन का नियमन या नियन्त्रण करना दम कहलाता है। मनो संयम के अभाव में मनुष्य काम-क्रोध आदि के वश होकर पथ भ्रष्ट हो सकता है।
अस्तेय-अस्तेय का अर्थ है अन्याय से, छल-कपट या चोरी से दूसरों की वस्तु का अपहरण करना। शौच का अर्थ पवित्रता से लिया जाता है। यह दो प्रकार से होती है-मृतिका और जल आदि से शुचि जो बाह्य शौच है जबकि दया, परोपकार, तितिक्षा आदि गुणों से आभ्यन्तर शौच माना जाता है।
इन्द्रिय-निग्रह-शब्दादि विषयों की ओर जाने वाली चक्षुरादि इन्द्रियों को अपने वश में रखना इन्द्रिय निग्रह है। तत्त्वज्ञान को ही धी कहते हैं। विद्या का
For Private and Personal Use Only