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श्रुतसागर
जून • २०१४ (१) ब्रह्मचर्य आश्रम
आरम्भिक पच्चीस वर्ष संयम व स्व-अनुशासन के साथ ज्ञानार्जन में व्यतीत करना, सच्चे ज्ञान को ग्रहण करना तथा वास्तविक जीवन का अभ्यासी बनना ही ब्रह्मचर्य आश्रम है। निज पर शासन फिर अनुशासन !
चतुर्थ गुणस्थान तक ऊपर की और बढ़ने हेतु सम्यकत्व के ज्ञान की बात पर बल दिया गया है और इस आश्रम व्यवस्था के प्रथम चरण में इसी साधना की बात कही गई है जो इसकी साम्यता प्रकट करती है।
ब्रह्मचर्य आश्रम में व्यक्ति को न सिर्फ सम्यकत्व का बोध होता है अपितु चतुर्थ गुणस्थान से ऊपर की स्थितियों के समरूप अनुशासनबद्ध व्यवहार का प्रयोगात्मक अनुभव शिक्षण के तहत कराया जाता है जो उसके गृहस्थाश्रम में प्रवेश एवं नीतिमत्तापूर्ण जीवन यापन के दायित्व निर्वाह में सहायक सिद्ध होता है। इस प्रकार से यह पाँचवे देशविरत गुणस्थान की आरम्भिक स्थिति की पूर्व तैयारी से सरोकार रखता है। (१) गृहस्थ आश्रम
यह आश्रम एक सद्-गृहस्थ के रूप में अपने नियत दायित्वों से जुड़ा है। गृहस्थी का उपयोग करते हुए भगवद भक्ति को न विसराना, उचित-अनुचित के भेद को सदैव अपने व्यवहार में अमली बनाना तथा इस प्रकार से कार्य करना जिससे दूसरों का नुकशान न हो यही गृहस्थाश्रम की विशिष्टताएं हैं।
गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए आत्म चिन्तन को न भूलना और भौतिक सुख सुविधाओं के प्रति ममत्व इतना न बढ़ा लेना कि जिससे उसके न होने पर दुख व होने पर अतिरेक खुशी का अहसास हो। गुणस्थान की स्थितियों के संदर्भ में गृहस्थाश्रम पाँचवे गुणस्थान तक ही श्रावक को ले जाता है। (३) वानप्रस्थ आश्रम___ यह आध्यात्मिक विकास यात्रा का पूर्व मुकाम है। गृहस्थाश्रम के पश्चात व्यक्ति को इच्छा या इन्द्रिय निरोध करना होता है। जिस प्रकार ब्रह्मचर्य आश्रम सद गृहस्थ का जीवन जीने हेतु शिक्षण-प्रशिक्षण का कार्य करता है ठीक उसी प्रकार वानप्रस्थ आश्रम वैराग्य की परिणति की ओर पहला कदम है जिसमें
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