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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३६ (२४) इस चित्र में विशाल जिनमन्दिर का भाव बतालाया है। आजु-बाजु साधु साध्वी, श्रावक-श्राविकायें दर्शन करते बताये हैं। शिल्पकला की दृष्टि से इस चित्र का विशेष महत्त्व है। __ श्रीमद् देवचन्द्रजी निर्मित स्नात्रपूजा जैनसमाज में कितनी आदरणीय समझी जाती थी और आज भी समझी जाती है-यह उक्त सचित्र प्रति से स्पष्ट हो जाता है। आपकी निर्माण की हुई अध्यात्मगीता की भी सचित्र प्रति मुझे सूरत में देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। स्नात्रपूजा से भी उक्त गीता चित्रकला की दृष्टि से ज्यादा महत्त्व रखती है। वह रंगीन पत्रों के उपर स्वर्णाक्षरों से लिखी गई है, जो श्रीजिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार के पास सुरक्षित है। इन दोनों सचित्र कृतियों से पाठक सोच सकते हैं कि श्रीमद् के ग्रन्थों का कितना आदर था! ___ उपसंहार - ऊपर मैंने स्नात्रपूजा के चित्रों का यथामति संक्षिप्त वर्णन दिया है। उपलब्ध पूजाओं में यही एक ऐसी पूजा है जो सचित्र है। यद्यपि खरतरगच्छीय आचार्य श्रीजिनचन्द्रसूरिजीकृत सचित्र पंचकल्याणक पूजा मेरे संग्रह में है पर वह इतनी सुन्दर नहीं है। उपरोक्त प्रति की एक और विशेषता यह है कि प्रत्येक चित्र के पास पूजा की गाथाएँ अंकित हैं जो पाठान्तरों की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। प्रकाशित पूजा में और उक्त पूजा में पाठान्तर विशेषरूपेण पाये जाते हैं जिस पर यथावकाश प्रकाश डाला जायेगा। इस प्रति के चौवीस पन्ने हैं। प्रति का नाप ६'x१०' है। चारों ओर भिन्न-भिन्न प्रकार के बेलबूटे बने हुए हैं जिसमें कतिपय पक्षियों का भी समावेश है। यद्यपि प्रति में लेखनकाल अनिर्दिष्ट है तथापि अनुमानतः उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण की होनी चाहिये। यह चित्रकला राजस्थानी है, कतिपय चित्रों में पहाडी कलम की सूक्ष्म झलक भी मिल जाती है। प्रति को सुरक्षित रखने के लिये चारों ओर अभ्रक का कागज लगा हुआ है। इसके चित्र की फोटो-कापी मेरे संग्रह में है! पूज्य गुरुवर्य उपाध्यायजी श्री श्रीसुखसागरजी महाराज की प्रेरणा को उक्त प्रति ज्योंकि-त्यों ब्लाक बनवाकर छपवाने का प्रबन्ध किया जा रहा है। जबलपुर सदरबाजार स्थित यतिवर्य श्री युगादिसागरजी के पास यह प्रति सुरक्षित है। उनसे पूछने पर मालूम हुआ है कि वे इस प्रति को लखनऊ से लाये थे। २० वर्ष से उनके पास है। जैन समाज के सामने जो परिचय आ रहा है वह उन्हीं के सौहार्द का फल है। मेरे ज्येष्ठ गुरुवर्य मुनिराज श्री मंगलसागरजी का बिना आभार माने नहीं रहा जाता, चूंकि आपने ही मेरा ध्यान इस प्रति की ओर आकर्षित किया था। ऐसी पूजाएँ हर एक जैन मन्दिर में चित्रित होवे। अस्तु । (जैन सत्यप्रकाश वर्ष-७, अंक नं.-१०में से साभार) For Private and Personal Use Only
SR No.525286
Book TitleShrutsagar Ank 2014 01 036
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMukeshbhai N Shah and Others
PublisherAcharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
Publication Year2014
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size2 MB
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