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तक्षशिला विद्यापीठ :
संसार के सबसे प्राचीन विद्यापीठों में जिसकी गणना सर्व प्रथम होती है, ऐसी मात्र भारत की ही नहीं बल्कि एशिया की प्रमुख विद्यादायिनी संस्था भारतभूमि पर रावलपिण्डी नामक प्रदेश में विकसित हुई। ऋषि दौम्य, चाणक्य, पाणिनी और नागार्जुन जैसे भारत के समर्थ पण्डित इस संस्था के चमकते हुए सितारे थे जिनकी यशोपताका आज भी उनके द्वारा विरचित ग्रन्थों के माध्यम से संपूर्ण विश्व को ज्ञान-विज्ञान द्वारा प्रकाशित कर रही है।
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बौद्ध धर्म के उदय से पहले यह वैदिक साहित्य के अध्ययन-अध्यापन का प्रमुख केन्द्र था। इसके बाद बौद्ध धर्म-दर्शन, चिकित्सा शास्त्र एवं तत्त्वज्ञान के अध्ययन हेतु इसका नाम अग्रगण्य संस्थाओं में सबसे पहले गिना जाने लगा । कनिष्क के समय में इसकी ख्याति अपनी चरम सीमा पर थी । युद्ध- कौशल विषयक विशिष्ट प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए भी इस विद्यापीठ की प्रसिद्धि चारों ओर फैली हुई थी । यहाँ गरीब छात्रों तथा राजकुँवरों में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता था। दोनों ही वर्गों के छात्र बिना किसी भेद-भ द-भाव के एक-साथ बैठकर समान शिक्षा ग्रहण करते थे ।
मार्च २०१३
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सिकन्दर भारत से वापस लौटते समय इस विद्यापीठ में से कई विद्वान् अध्यापकों को अपने साथ लेकर गया था । संसार के दूसरे किसी भी विद्यापीठ ने नहीं भोगा हो ऐसा लगभग बारह सैका तक यशस्वी और दीर्घ आयुष्यकाल तक इसका अस्तित्व रहा। ई. सन् ५०० के आस-पास तोरमाओं के जंगली हूण टोलाओं के हाथों इस विश्व प्रसिद्ध विद्यापीठ का नाश हुआ ।
नालन्दा विद्यापीठ :
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ह्वेनसांग ने इस विद्यापीठ का वर्णन करते हुए लिखा है कि पहले यहाँ एक सुन्दर उपवन था । पाँचसौ व्यापारियों ने उसे खरीदकर भगवान् बुद्ध के लिए भेंट स्वरूप अर्पित किया ! भगवान् ने वहाँ रहकर धर्मोपदेश दिया । हूणों के द्वारा तक्षशिला का विध्वंस होने के बाद नालन्दा विद्यापीठ का महत्त्व और भी बढ़ गया | सातवीं सदी में तो भारत के अग्रगण्य विद्यापीठों में इसकी कीर्ति सर्वत्र फैल गई।
पटना से कुछ दूर गंगा नदी के किनारे रमणीय स्थल पर यह विद्याविहार स्थापित था । प्रातःकाल के धूमस में घिरा हुआ नालन्दा विद्यापीठ अतीव मनोहर दिखाई पड़ता था । यहाँ के स्तूप, विहार और मन्दिरों के निर्माण में कुशल नगर रचना की कला का स्पष्ट चित्र दिखाई पड़ता है। यहाँ के भवनों का निर्माण-कार्य अत्यन्त मजबूत किस्म का था । गगनचुम्बी वेधशाला, विशाल परकोटा, भव्य