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महो. जयसागरकृत चिन्तामणि पार्थजिन स्तोत्र
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चिंतामणिपासजिणं, तं नमह भत्तिभरेण य तिसंझं । सिरिधरणिव्व नमंसिय, पउमावइ सेविय सुपायं जो समरइ पासपहुं, वंदिय सुरवरनरिंदपयकमलं । रिद्धिं पि फलइ निच्चं, उवद्दवा नासइ य तस्स दारिदं-दोहग्गं, कुजाइ-कुमइ-कुसरीर-कुगईओ। जो स[म]रइ पासमंतं, न य हुंति कयावि किं तस्स चोरारिरणजलजलण-मइंदगयविसहराइंयभयाई। जस्स पभावेण सया, पसमंति य दुरियसव्याइं कप्पतरु-कामधेणु-चिंतामणि-लच्छिकुंभ-माईआ। जस्स मणे पासनाह, गिहंगणिमि फलइ य तस्स पई जायंताण मणे, गच्छंति सुरासुरीउ दासत्तं । पासजिणनाममंतं, पयडं नत्थि त्थ संदेहो गह-भूय-पिसाय-जक्खा-खुद्दभय-रक्खस-साइणिभयाइं। सिरिपासजिणिंदनाम-मंतपभावेण पसमंति पढइ जनानंदपरं, जो सुणइ य पाससंथवमुयारं | सासयसुक्खनिहाणं, निबिग्घं सो भमइ लोए इय सिरि घणदीवीए, संथुओ जयसायरेण जिणचंदो। मह वंछियसिद्धिं कुरु, राजसायर गुरु पसाएण
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