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वि.सं.२०६९-महा मेघराजादियुतेन श्रीचिंतामणिपार्श्वनाथबिंबं का. प्र. भ. युगप्रधान श्रीजिनसिंहसूरिपट्टालंकार भ. श्रीजिनराजसूरिभिः प्रतिष्ठितं ।।
इस प्रकार सेठश्री थीरूशाह इस प्राचीन तीर्थ का जीर्णोद्धार एवं जिन प्रतिष्ठा कराकर जैन परम्परा के इतिहास में जन्म-जन्मान्तर के लिए अजरअमर हो गये।
इसी कड़ी में इस तीर्थ का पुनः जीर्णोद्धार कार्य गुजरात के सेठ श्री कस्तूरभाई लालभाई की प्रेरणा एवं मार्गदर्शन के तहत श्री जीवनदास गोडीदास श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथजी जैन देरासर ट्रस्ट, मुंबई तथा अहमदाबाद ट्रस्ट के आर्थिक सहयोग से वि.सं. २०२९ श्रावण वद सातम दिनांक १-८-१९७२ मंगलवार के दिन जीर्णोद्धार - कार्य प्रारम्भ हुआ और वि.सं. २०३४ कार्तिक पूर्णिमा दिनांक २५-११-१९७७ शुक्रवार के दिन पूर्ण हुआ जो अपने आप में एक अलौकिक कार्य है।
विशिष्टता : यह जैसलमेर पंचतीर्थी का प्राचीन मुख्य तीर्थस्थल है। यहाँ की शिल्पकला अद्भुत और निराली है। इस देरासर में पश्चिमी राजस्थान के शिल्पियों ने अद्भुत शिल्पकला का परिचय प्रस्तुत कर राजस्थान के गौरव में चारचाँद लगा दिये हैं। प्राचीन कल्पवृक्ष के दर्शन सिर्फ इसी तीर्थ में होते हैं जो अपने आप में गौरव का विषय है । एक जमाने में इस शहर की गणना भारत के बड़े शहरों में होती थी। इसी लिए भारत का सबसे बडा विश्व-विद्यालय यहाँ स्थापित किया गया था जो इस शहर के प्राचीन गौरव का परिचायक है।
प्राचीनकाल में जैनाचार्य यहाँ होकर ही मुलतान प्रदेश को जाते होंगे। इसी कड़ी में यहाँ के राजकुमारों ने प्रेरित होकर जैन धर्म अंगीकार किया होगा जिसके फलस्वरूप एक महान तीर्थ की स्थापना हुई। जो हजारों वर्षों से इस वीरान रण में आँधी-तूफानों के झपेटों को सहन करते हुए जैन इतिहास के गौरव-गरिमा की याद दिलाता है। यह अत्यन्त शुभ घड़ियों में आचार्य भगवन्तों तथा राजकुमारों द्वारा शुद्ध विचारपूर्वक किये गये महान कार्य का फल है।
वीरान जंगलों में विखरी हुई हजारों इमारतों के खण्डहर यहाँ के प्राचीन इतिहास की याद दिलाते हैं। जंगल में मंगल मनाने जैसा यहाँ का शान्त एवं शुद्ध वातावरण आत्मा को परम शान्ति प्रदान करता है।
यहाँ के अधिष्ठायक देव अत्यन्त चमत्कारी और साक्षात हैं। यही कारण है कि अनेकों बार इस क्षेत्र पर विध्वंशक आक्रमण होने पर भी यह तीर्थ आज भी अटल-अविचल विद्यमान है |
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