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अक्तुबर २०१२ पर्वराज पर्युषण पूर्ण धार्मिक वातावरण में सम्पन्न
पर्वाधिराज पर्युषण उस कल्पवृक्ष के समान है, जिसकी छाया के नीचे आने वालों की हर शुभ संकल्प और मनोकामना पूर्ण होती है। खेतों में घास तो स्वयं उगती है, किन्तु फसल पाने के लिये किसान खेतों में उगे हुए घास को बाहर निकालकर खेत को साफ करता है और फिर फसल की बुआई करता है, अपेक्षित फसल पाने के लिये उसे कठिन परिश्रम करना पड़ता है। उसी प्रकार भौतिक समृद्धि और संसारिक सुख तो स्वतः मिलते रहते हैं, किन्तु हमारी साधना का मुख्य लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति होना चाहिये। पर्युषणपर्व हमारी आत्मिक समृद्धि के लिये उपयुक्त समय है, इस समय का सम्पूर्ण सदुपयोग करके अपनी आत्मा का विकास करने का प्रयास करें और सम्पूर्ण जीवन को मंगल कलश बनाएँ। प्रत्येक श्रावक को अपने मनमन्दिर में बसे परमात्मा की मूर्ति को बचाने के लिये विषय-विकाररूपी घास को तपश्चर्या की भट्टी में जलाने का संकल्प लेना होगा।
उपरोक्त बातें परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब ने श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा में दिनांक १२ सितम्बर, १२ को जैनशासन का महापर्व पर्युषण के प्रथम दिन कहीं। पूज्य राष्ट्रसन्त की निश्रा में पर्युषण पर्व की आराधना करने हेतु देश के कोने-कोने से पधारे सैकड़ों श्रद्धालुओं ने पूज्यश्री के व्याख्यान का लाभ लिया। ___ महापर्व के दूसरे दिन पूज्य आचार्यश्री ने पर्युषण पर्व के महत्त्व एवं पर्व के दिनों में किये जाने वाले कार्यों के सम्बन्ध में श्रद्धालुओं को बताया कि इस पर्व के दिनों में सन्तों के मुख से जिनवाणी का श्रवण करना चाहिए। प्रवचन हमारी सुसुप्त चेतना को जगाने का कार्य करते हैं। साधु-सन्त उस पोस्टमैन की तरह हैं जो परम कृपालु परमात्मा के कल्याणकारी सन्देशों को हर आत्मा तक पहुँचाने का कार्य करते हैं। जिनेश्वर परमात्मा ने जिस तरह अपने जीवन में कठिन साधना कर चरम तत्त्व को प्राप्त किया, उसी प्रकार हमें भी अपने जीवन में साधना करनी होगी।
पर्वाधिराज के तीसरे दिन पूज्य आचार्य भगवन्त ने जिनागम और श्रुतज्ञान का महत्त्व बताते हुए कहा कि परमात्मा की वाणी जिनागमों में उल्लिखित है, इसे श्रुतज्ञान भी कहते हैं। जिनवाणी श्रवण करने से हमें अपने जीवन में करने योग्य कर्तव्यों का बोध होता है। आराधना करने की पद्धति का ज्ञान होता है। कितनी आराधनाएँ करते हैं इसका महत्त्व नहीं है, बल्कि किस प्रकार आराधना करते हैं, यह महत्त्वपूर्ण है। आराधना में क्वानटिटी की नहीं क्वालिटी की जरूरत है। धर्म में दर्शन का भाव होना चाहिए प्रदर्शन का नहीं। आराधना का ढोंग करने से नहीं आराधना ढंग से करने से उचित लाभ प्राप्त होगा।
पर्युषणपर्व के चौथे दिन सर्वप्रथम पूज्य आचार्य भगवन्त को पवित्र धर्मग्रन्थ कल्पसूत्र वोहराया गया। अनेक श्रावक-श्राविकाएँ ज्ञानमन्दिर से पवित्र ग्रन्थ कल्पसूत्र को फूलों आदि से खूब सजाकर उपाश्रय में ले गये जहाँ विराजित पूज्य आचार्यश्री को यह पवित्र ग्रन्थ वोहराया गया। आज के दिन से कल्पसूत्र का वांचन प्रारम्भ हो गया। पूज्यश्री ने कल्पसूत्र ग्रन्थ के सम्बन्ध में समझाते हुए कहा कि कल्प का अर्थ आचार होता है। अपने आचार को कैसे व्यवस्थित बनाएँ, जीवन को कैसे साधना से जोड़ें, हम परमात्मा से कितनी दूर हैं, यह चिन्तन करने का तरीका कल्पसूत्र के श्रवण-मनन और चिन्तन करने से ही सम्भव है। पूज्य आचार्यश्री ने कल्पसूत्र का वाचन करते हुए साधु के आचार एवं भगवान महावीर के पूर्व के २७ भवों का वर्णन किया। आचार्यश्री ने कहा कि साधु वह है जिसका परिचय तो सबसे हो किन्तु राग किसी के साथ नहीं करे। साध को मात्र संयम पालन हेतु वस्त्र धारण करना होता है, उससे ममत्त्व नहीं रखता है। भगवान महावीर के २७ भवों का वर्णन करते हुए आचार्य भगवन्त ने कहा कि भगवान महावीर के जीव को संसार में २७ बार जन्म और मृत्यु का दुःख सहन करना पड़ा। इस क्रम में वे अनेक बार स्वर्ग में भी उत्पन्न हुए। भगवान महावीर का जीव प्रथम तीर्थकर भगवान आदिनाथ के शासनकाल में उनके पौत्र मारिचकुमार के रूप में हुआ था और संयम मार्ग से विचलित होकर अलग पंथ की स्थापना की थी। इस प्रकार उनके जीव को अनेक बार यहाँ आना-जाना लगा रहा, अनेक भवों में तप-साधना की तब उन्होंने तीर्थंकर पद को प्राप्त किया। पूज्य आचार्यश्री ने कहा कि परमात्मा के चरित्र का श्रवण करने से मन में स्थित दुर्विचारों का नाश हो जाता है।
पर्वराज पर्यषण के पाँचवें दिन भगवान महावीर का जन्म और माता त्रिशला के १४ स्वप्नों का वर्णन करते हए विस्तारपूर्वक समझाया। माता-पिता के प्रति पुत्र के कर्तव्य का बोध कराते हुए पूज्य राष्ट्रसन्त ने कहा कि जब भगवान महावीर माता के गर्भ में थे तब उन्होंने अपने अवधिज्ञान से जाना कि मेरे हलन-चलन से मेरी
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