SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वि.सं.२०६८-आषाढ़ (पाण्डुलिपियों में मिलनेवाले चिहन और उनका संपादकीय महत्व) डॉ. उत्तमसिंह पाण्डुलिपियों में चिह्नों के मिलने का सिलसिला प्रथम पृष्ठ से ही शुरू हो जाता है। सर्वप्रथम मङ्गलसूचक चिह्न मिलते हैं जो इस प्रकार हैं ॥30॥ ॥ GE, MON, | दुनमः सिद्धम् ॥ ॥ ॥ ६ ॥ ये सभी चिह्न ग्रन्थ की निर्विघ्न परिसमाप्ती हेतु प्रथम मङ्गल के लिए बनाए जाते थे। आज भी प्रथम मङ्गल की परम्परा प्रचलित है जिसमें ग्रन्थकार या तो ॐ लिखते हैं या इष्ट देवी देवताओं की वन्दना से संबन्धित श्लोक लिखते हैं। हस्तप्रत स्वरूप: मूल जिह्वा क्षेत्र हंसपाद या काकपाद या मार्जिन-हाँसिया--- मार्जिन हाँसिया-- दर 7 मोर-पगलं आदि चिल मध्यफुल्लिका छिट्रक / चन्द्रक जिह्वाक्षेत्र : यह हस्तप्रत का मूल भाग होता है जिसमें अभीष्ट ग्रन्थ लिखा जाता है। मार्जिन-हाँसिया : मार्जिन-हाँसिया का उपययोग टिप्पणी लिखने हेतु किया जाता था। अथवा हस्तप्रत-लेखन के समय यदि किसी बात को प्रमादवश लिखना भूल गये हैं लेकिन वह उपयोगी है तो उसे इस मार्जिन-हाँसिया क्षेत्र में लिख दिया जाता था या किसी कठिन शब्द का अर्थ भी इस क्षेत्र में लिखा हुआ मिलता है। हंसपाद, काकपाद या मोर-पगलॅ : यह चिह्न गणित के 'x' 'गुणा' के निशान जैसा होत है, इस चिह्न के माध्यम से हस्तप्रत के मूल जिह्वा-क्षेत्र में यदि कुछ शब्द, वर्णादि जोड़ना हो तो वहाँ पर अन्दर में ' 'V' इस प्रकार के चिह्न लगा दिये जाते थे और मार्जिन-हाँसियावाले क्षेत्र में काकपाद का चिह्न बना दिया जाता था। यह चिह्न उसी पंक्ति के सामने बनाया हुआ मिलता है जिसमें 'A' चिह्न लगाये गये हों। अर्थात् इस पंक्ति में जो कुछ छूट गया है या लिंखे हुए को मिटाया है या लेखन में पुनरावृत्ति हो गई है तो उस चीज को काकपाद के माध्यम से दर्शाकर हस्तप्रत के मार्जिन-हाँसियावाले क्षेत्र में लिख दिया जाता था। इस चिह्न का मुख्य रूप से उपयोग होने का एक और भी कारण जान पड़ता है; क्योकि उस समय हस्तप्रत-लेखन के साधन अत्यन्त सीमित और अल्प थे, अतः कम स्याही और कम कागज़ या ताडपत्र, भोजपत्र में अधिक लिखान हो जाये इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था। ताडपत्र, भोजपत्र या कागज़ आदि भी सीमित मात्रा में ही उपलब्ध होते थे। एक ग्रन्थ के लिखने हेतु यदि वह ताड़पत्र या भोजपत्र पर लिखा है तो वर्षों तो उस ग्रन्थ के परिमाण में भोजपत्र, ताडपत्र और स्याही आदि तैयार करने में ही बीत जाते थे। अतः सीमित लेखनसामग्री के माध्यम से ही अधिक से अधिक लिखने का कार्य पूर्ण करने की कोशिश की जाती थी। इसी लिए इन चिह्नों का सहारा लेना हमारे पूर्वाचार्यों ने अत्यन्त आवश्यक समझा होगा। मध्यफुल्लिका : यह चिह्न पञ्चभुज, षड्भुज या चतुर्भुज के आकार का होता है जो हस्तप्रत के बीचोंबीचवाले भाग में बनाया हआ मिलता है। यथा COMEO For Private and Personal Use Only
SR No.525268
Book TitleShrutsagar Ank 2012 07 018
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMukeshbhai N Shah and Others
PublisherAcharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
Publication Year2012
Total Pages20
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy