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वि.सं.२०५८-यंत्र
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| कैलास श्रुतसागर ग्रंथसूचि की विशिष्टता
संकलन : डॉ. हेमंत कुमार यह प्रायः सर्वमान्य तथ्य है कि जैन परम्परा की साहित्य-संपदा किसी भी अन्य भारतीय धार्मिक परम्परा की अपेक्षा विपुलता, विविधता एवं गुणवत्ता की दृष्टि से कम नहीं है. विभिन्न भाषाओं एवं विविध विषयक उच्चकोटि की रचनाओं से जैन मनीषी अतिप्राचीन काल से भारती के भंडार को समृद्ध करते आये हैं. जैन धर्म के चतुर्विध संघ में श्रमण-श्रमणी एवं श्रावक-श्राविका ये मुख्य अंग हैं. श्रमण-श्रमणी संसारत्यागी एवं मोक्षमार्ग के साधक होते हैं. गृहस्थ जीवन व्यतीत करने वाले श्रावक-श्राविकाओं के लिए वे धर्मपथ प्रदर्शक, आराध्य एवं श्रीसंघ के गुरु हैं. इन विषयातीत निष्परिग्रही, निरारंभी श्रमणों की विशेषता ज्ञान-ध्यान-तपोरक्त रहना है. उनका प्रयत्न सदैव अभीक्षण-ज्ञानोपयोग में संलग्न रहना होता है. स्वाध्याय उनके तपानुष्ठान का महत्वपूर्ण अंग होता है. अतएव अति प्राचीन काल से ही अनगिनत आचार्य एवं मुनिराज साहित्य सजन में प्रमुख योगदान करते आये हैं.
जैन गृहस्थ देव-शास्त्र-गुरु का उपासक होता है. जिनेन्द्रदेव के पश्चात् आम्नायानुमोदित धर्मशास्त्र और साधु रूपी गुरु ही उसकी शक्ति के सर्वोपरि पात्र होते हैं. उनके दैनिक आवश्यक षट्कर्म में स्वाध्याय और दान का महत्वपूर्ण स्थान है. प्रतिदिन कुछ निर्धारित समय तक श्रद्धापूर्वक धर्मशास्त्रों का अध्ययन करना स्वाध्याय है, और साधु-साध्वी सभी सत्पात्रों की आहार-अभय-औषधि-शास्त्र रूप चतुर्विध दान से सेवा करना दान है. अतः स्वतः भी और गुरुओं की प्रेरणा से भी जैन गृहस्थ साधु-साध्वियों को, अन्य त्यागी व्रतियों को तथा जिनमंदिरों को शास्त्रों की प्रतियाँ लिखवाकर दान करने में सदैव उत्साहपूर्वक प्रवृत होते रहे हैं. परिणामस्वरूप देश के प्रायः प्रत्येक जिनालय में एक छोटा-मोटा शास्त्र-भंडार विकसित होता रहा. अनेक भट्टारकीय पीठ, मठ, वसदी, उपाश्रय आदि अच्छे ग्रंथसंग्रह केन्द्र बने और संरक्षित रहे. इस प्रकार ये विविध शास्त्र-भंडार और जैन साहित्य के संरक्षण के सफल-साधन सिद्ध हुए. . .
आधुनिक युग के प्रारम्भ में ही जबसे पाश्चात्य विद्वानों ने भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य आदि का विधिवत अध्ययन प्रारम्भ किया, तबसे धीरे-धीरे जैन शास्त्रभंडारों ने भी उनका ध्यान आकर्षित किया. अनेक जैन ग्रंथभंडारों में पांडुलिपियों के शोध-खोज एवं अध्ययन का अभूतपूर्व कार्य प्रारम्भ हुआ. इस संदर्भ में आवश्यकता प्रतीत होने लगी कि कम से कम प्रत्येक महत्वपूर्ण जैन शास्त्रभंडार में संगृहीत ग्रंथों की परिचयात्मक ग्रंथसूचियाँ आधुनिक शैली में तैयार की जाएँ.
पूज्य राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी की प्रेरणा व आशीर्वाद से स्थापित एवं संचालित आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा में संगृहीत लगभग दो लाख से अधिक हस्तप्रतों के सूचीकरण का कार्य प्रारम्भ किया गया है. यह कार्य यहीं विकसित सूचीकरण प्रणाली, (जो आजतक की सबसे विस्तृत सूचीकरण पद्धति है,) के द्वारा सूचीकरण का कार्य किया जा रहा है. लगभग ५० से अधिक भागों में प्रकाशित होने वाली इस ग्रंथसूची के १२ भाग प्रकाशित हो चुके हैं. इस प्रकार की सूचियों के निर्माण करने का कार्य अत्यंत धैर्य, श्रम एवं समयसाध्य तो होता ही है, कदाचित नीरस भी होता है. तथापि ज्ञानमंदिर में कार्यरत प्राचीन लिपि व विभिन्न भाषा के विशेषज्ञों द्वारा रात-दिन संपादन-संशोधन का कार्य करते रहने से यहाँ सुगमतापूर्वक ग्रंथसूचि निर्माण व प्रकाशन का कार्य निरंतर चल रहा है.
ग्रंथसूचियों के लाभ विद्वानों के लिए अविदित नहीं हैं. अपनी साहित्य संपदा एवं हस्तलिखित ग्रंथों का लेखाजोखा जानना मात्र ही नहीं, प्रायः प्रत्येक भंडार में एकाधिक अप्रकाशित रचनाएँ प्राप्त होती हैं, कभी-कभी तो ऐसी विरल रचनाएँ भी प्राप्त हो जाती हैं जिनके अस्तित्व की जानकारी तो ग्रंथांतरों से होती थी, किन्तु वह कहीं भी उपलब्ध नहीं थी. इसके अतिरिक्त, किसी भी ग्रंथ के आधुनिक पद्धति से सुसंपादित संस्करण का निर्माण करने के लिए विभिन्न भंडारों में प्राप्त उसकी प्रतियों का मिलान करने से पाठभेदों के प्रक्षिप्त या त्रुटित अंशों आदि के निर्णय करने में बड़ी सहायता मिलती है. शास्त्र-दान करने वाले और प्रतिलेखक की प्रशस्तियों से अनेक रचनाओं के रचनाकाल निर्धारण में सहायता मिलती है, साथ ही मूल लेखक, दानप्रेरक गुरु, दाता श्रावक या श्राविका, लिपिकार, तत्कालीन गच्छाधिपति, राजा, मंत्री, प्रमुख श्रेष्ठी आदि व देश-काल आदि के संबंध में अनेक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य प्राप्त हो जाते हैं. भाषा एवं लिपि के विकास का अध्ययन करने में भी विभिन्न कालीन एवं विभिन्न क्षेत्रीय प्रतिलिपियाँ उपयोगी होती हैं.
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