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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुत सागर, वैशाख २०५२ इतिहास के झरोखे से www.kobatirth.org महान् शासन प्रभावश आचार्य हरिभद्र सूरि : एक परिचय आचार्य श्री हरिभद्रसूरि जैन धर्म के पूर्वकालीन एवं उत्तरकालीन इतिहास के सीमा स्तम्भ के रूप में सत्य के उपासक, १४ विद्याओं के पारंगत महान जैन दार्शनिक, १४४४ ग्रंथों के रचयिता तथा वृत्तिकार के रूप में सदियों से जाने जाते रहे हैं और युगों-युगों तक उनका नाम स्मरण किया जाता रहेगा. उनका जन्म चित्रकूट (चित्तौड़) निवासी ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनकी माता का नाम गंगण और पिता का नाम शंकर भट्ट था. भट्ट हरिभद्र प्रखर विद्वान थे जिसके कारण चित्तौड़ के राजा जितारि के यहाँ राजपुरोहित पद पर नियुक्त किये गए थे. उन्हें अपने ज्ञान का बहुत गर्व था. उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि मुझे वाद-विवाद में जो भी परास्त कर देगा उसका शिष्य बन जाऊँगा. एक बार वे एक उपाश्रय के रास्ते से डोली में बैठकर जा रहे थे कि अचानक उनके कानों में यह गाथा पड़ीचक्किदुगं हरिपणगं, पणगं चक्कीण...... एक साध्वीजी संग्रहणी की यह गाथा बार-बार दुहरा रही थी. हरिभद्र ने ध्यान पूर्वक इसका अर्थ जानने का प्रयास किया. लेकिन असफल रहने पर साध्वीजी के पास जाकर कहा कि इस स्थान पर चकचकाहट किस बात की हो रही है? बिना अर्थ के गाथा का पुनरावर्तन क्यों हो रहा है? हरिभद्र की वाणी में वक्रता अधिक थी किन्तु साध्वीजी ने, जो धीर, गंभीर, क्रियाशील, एवं व्यवहार निपुण थी, कोमल शब्दों में कहा कि 'नूतन लिप्तं चिकचिकायते' अर्थात् नूतन लेप किया आंगन चकचकाट कर रहा है. इस सारगर्भित उत्तर को सुनकर हरिभद्र प्रभावित हुए. उन्हें ऐसे जवाब की आशा नहीं थी. उनके मन में आया कि न तो इस गाथा का अर्थ समझ आया और न ही प्रत्युत्तर का मर्म समझ सका. उन्होंने साग्रह विनती की कि कृपया इसका अर्थ समझाइये अपनी पूर्व कृत प्रतिज्ञा की बात भी उन्होंने साध्वी याकिनि को बताई कि वह उनसे दीक्षा ले लेंगे 'प्रभावक चरित्र' में भी उल्लेख है कि साध्वीजी उसका अर्थ जानती थी लेकिन अपनी मर्यादा का पालन और ज्यादा लाभ उनको प्राप्त हो सके इसलिये उन्हें अपने गुरु आचार्य श्री जिनभद्रसूरिजी के पास अर्थ समझने के लिए भेजा. जैनाचार्य के पास जाकर विवेकशील वाणी से उन्होंने उस गाथा का अर्थ ' पूछा. अब उनका गर्व खंडित हो चुका था. आचार्य जिनभद्रसूरि ने गाया का अर्थ बताया तब तो हरिभद्र भट्ट का जैन धर्म के तत्वों को जानने की उत्सुकता जागी. तब जैनाचार्य ने कहा कि पूर्वोत्तर संदर्भ सहित जैन सिद्धान्त समझने के लिए मुनि जीवन को स्वीकार करना आवश्यक है. हरिभद्र के ज्ञान की छोर पर जैन दर्शन के तत्त्व ज्ञान की तरंगें लहराने लगी. हरिभद्र ने जैनाचार्य से पूछा भगवन् ! धर्म का फल क्या है ? वैदिक धर्म के एवं जैन धर्म फल में क्या अन्तर है ? आचार्यश्री ने कहा कि सकाम वृति वाले मनुष्य को धर्म के फलस्वरुप स्वर्ग की प्राप्ति होती है और निष्काम वृति वाले को 'भव विरह' याने संसार से मुक्ति अर्थात मोक्ष मिलता है. जैन धर्म इसी संसार से मुक्ति का मार्गमोक्ष का मार्ग दिखलाता है. हरिभद्र को यह उत्तर तर्कपूर्ण एवं सत्य प्रतीत हुआ और अपनी प्रतिज्ञानुसार उन्होंने जैन वाङ्गमय एवं उसके फल स्वरूप को अंगीकार करने के लिए श्रमणत्व स्वीकार किया. वे जैन मुनि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ बन गए. उन्होंने साध्वी याकिनि महत्तरा को अपनी धर्म माता के रूप में स्वीकार कर अपने परिचय के रूप में ज्यादातर कृतियों के अन्त में 'महत्तरा याकिनि धर्म सूनु' शब्द का उल्लेखकर अपनी धर्म माता के उपकार को अमर बना दिया. वे वेदादि १४ विद्याओं के पारंगत तो थे डी. उनमें जैन शास्त्रों के वस्तु तत्त्व को सर्वग्राही दृष्टिकोण से देखने की वृत्ति जागृत हो उठी, उनके हृदय में जैन धर्म के प्रति अनुराग बढ़ने के साथ ही जैन तत्व ज्ञान व अनेकांत दृष्टि की उत्कृष्टता बस गई. श्रमण जीवन के पवित्र आचारों का पालन करते हुए वे आचार्य पद के योग्य हुए तब उन्हें आचार्य जिनभद्रसूरि ने आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया. आचार्य बन कर हरिभद्रसूरिजी ने जैन शासन की अभूतपूर्व सेवा की. उन्होंने सर्व दर्शनों के सिद्धान्त रहस्यों को अपने हृदय में आत्मसात् कर ज्ञान की निर्मल धारा प्रवाहित की, जिससे आज तक अनगिनत जिज्ञासु भव्य जन अपनी ज्ञान तृषा शान्त कर रहे हैं. कहा जाता है कि हरिभद्रसूरि के ग्रंथों के परिचय के बिना जिनागमों का हार्द नहीं समझा जा सकता. अनेकान्तवाद की समन्वयपूत दृष्टि से उन्होंने जैन श्रुतज्ञान निधान प्रत्यक्ष कर लिया था. . आचार्य हरिभद्रसूरिजी के संसारी भांजे हंस और परमहंस नामक दो शिष्य भी थे. दोनों ही व्याकरण, साहित्य एवं दर्शन के विद्वान बन गए थे. उस समय बौद्ध दर्शन की प्रबलता थी. राज्याश्रय के कारण बौद्ध दर्शन का प्रसार एवं प्रभाव जैन समुदाय में बड़ी शीघ्रता से हो रहा था. बौद्ध दर्शन के अभ्यास के बिना बौद्धों का खंडन करना सम्भव नहीं था. अतः हंस और परमहंस ने आचार्य हरिभद्रसूरि से आशा मांगी कि वे दोनों बौद्ध विद्यापीठ में जाकर अध्ययन कर सकें. निमित्त शास्त्र के ज्ञाता आचार्य हरिभद्रसूरि ने भवितव्य को जानकर अनुमति नहीं दी, लेकिन वे दोनों नहीं माने और भवितव्यतावश बौद्ध भिक्षु का वेश धारणकर बौद्धदर्शन का अभ्यास करने निकल पड़े. विद्वान होने के कारण उन्होंने बौद्ध धर्म के मर्म पर अपना ध्यान केन्द्रित किया और थोड़े समय में ही रहस्य ग्रन्थों at कण्ठस्थ कर लिया. वे समयानुकूल जैनदर्शन शैली से बौद्ध दर्शन का खण्डन लिख भी लेते थे. एक दिन उनमें से एक पत्र किसी बौद्ध भिक्षु के हाथ लग गया और बात खुल गई कि यहाँ कोई जैन रह रहा है. बौद्ध आचार्य ने बड़ी कुशलता से भेद पा लिया और हंस व परमहंस पहचान लिए गए. अतः वे दोनों वहाँ से प्रस्थान कर गए. मार्ग में यातनावश हंस का प्राणांत हो गया, किसी प्रकार परमहंस ने समीपवर्ती नगर में जाकर सूरपाल नामक राजा की शरण ली. बाद में बहुत 'कष्टों को सहन करते हुए आचार्य हरिभद्रसूरिजी के चरणों में उपस्थित हुए और अपने अविनय के लिए क्षमा माँगकर समाधि पूर्वक काल धर्म को प्राप्त हुए. आचार्य हरिभद्र सूरि जी को इस बात का बड़ा दुःख हुआ, उन्होंने बौद्धों को शास्त्रार्थ में परास्त करने की प्रतिज्ञा की सूरपाल राजा के यहाँ बौद्ध आचार्य हरिभद्रसूरि के मध्य शास्वार्य हुआ. इसके पूर्व दोनों की सम्मति से यह तय हुआ था कि जो पराजित होगा उसके पक्ष के व्यक्ति अतिशय गर्म तेल में जल कर मर जायेंगे. सूरपाल राजा की सभा में कई दिनों तक वाद-विवाद चलता रहा. अन्त में अपने अद्भुत तर्क सामर्थ्य और असाधारण ज्ञान बल से आचार्य हरिभद्रसूरिजी विजयी हुए. इधर इसी समय हरिभद्रसूरि के गुरुवर जिनभद्रसूरि को इस घटना का पता लगा और तुरंत उन्होंने कोपाविष्ट अपने शिष्य के प्रतिबोध हेतु तीन गाथाएँ लिख भिजवाई इनमें गुणसेन [शेष पृष्ठ ५ पर For Private and Personal Use Only
SR No.525253
Book TitleShrutsagar Ank 1996 04 003
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoj Jain, Balaji Ganorkar
PublisherShree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year1996
Total Pages8
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size1 MB
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