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________________ मुनि परम्परा का विकास ऋग्वेद से लेकर महावीर तकः 47 अनागरियं पबज्जति' जो घर से निकलकर अनिकेत स्थिति में प्रवेश करता है, वह परिव्राजक है। बृहदारण्यक उपनिषद्६३ में भी मैत्रेयी और कात्यायनी नाम की दोनों भार्याओं को और अपनी गार्हस्थिक सम्पत्ति को छोड़ने वाले याज्ञवल्क्य को 'अन्यवृत्तमुपाकरिष्यन्' गृहस्थ से भिन्न जीवन पद्धति को अपनाते हुए प्रव्रजिष्यन् कहा गया है। इसी प्रकरण को आगे बढ़ाते हुए पुनः कहा गया है- एतमेव प्रव्रजिनों लोकमिच्छन्तः प्रव्रजन्ति। आगे कहा गया है कि 'पुत्र भार्याओं से समन्वित गृहस्थ की जीवन चर्या का परित्याग कर आगार को छोड़कर ब्रह्मलोक या आत्म साधना के लिए अनागारी हो जाना ही प्रव्रजन है'। इस संदर्भ में निरुक्त में परिव्राजकों का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है। ऋग्वेद६४ की एक ऋचा में कहा गया है- स मातुर्योना परिवीतो अन्तर्बहुप्रजा निऋतिमाविवेश। इस ऋचा पर यास्क६५ टिप्पणी करते हुए कहते हैं - "बहुप्रजा कृच्छमापद्यत इति परिव्राजकः'। इसप्रकार परिव्राजकों का अस्तित्व ऋग्वेदीय काल तक जाता है। अत: यह स्पष्ट है कि परिव्राजक संसार को दुःखमय समझते थे। ऐहिक और आमुष्मिक सुख की प्राप्ति के लिए करणीय कर्मकाण्ड या अन्य उपासना में विश्वास नहीं करते थे। अतएव ये वैदिक धारा में अन्तर्भुक्त नहीं थे बल्कि श्रमणधारा में अन्तर्मुक्त थे। यह विवेचन पालि- साहित्य में बहुशः प्रयुक्त ‘समण-ब्राह्मण' युग्म को भी व्याख्यायित करने में समर्थ है। दोनों समण और ब्राह्मण समान रूप से समादृत थे। दोनों के लक्ष्य और प्रवृत्तियाँ समान थीं-दोनों ही शील, चित्त और प्रज्ञा से अभिप्रेत माने जाते थे। दोनों ही अनेक विधियों से अनेक रूपों में तपश्चर्या करते थे - “अनेन-परियायेन तयो जिगुच्छाय वण्णं भासन्ति।'६६ श्रमण के समकक्ष इन ब्रह्म सम ब्राह्मणों के विषय में बुद्ध का वचन है -कथं च दोण, ब्राह्मणोब्रह-समो होति?....सो अट्ठचत्तालीसवस्सानि कोमारं ब्रह्मचरियं चरन्ति.... । सोआचारियस्स आचारिय-धानं निजं यादेत्वा केस-मस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनागरियं पवज्जति'।६७ अर्थात् - 'द्रोण, ब्राह्मण, ब्रह्म-सम होता है? जो अड़तालिस वर्ष तक कौमार्य-व्रत धारण कर ब्रह्मचर्या करता है.....(और फिर) आचार्य को दक्षिणा निवेदित कर, केशश्मथ परित्याग कर एवं काषाय-वस्त्र धारणकर आगार से निकलकर अनागारी हो जाता है। डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल ने अपनी पुस्तक 'प्राचीन भारतीय लोक धर्म' में धार्मिक कृत्यों एवं उत्सवों को सम्मान कराने वाले ब्राह्मणों को माखण/माहण के नाम से सम्बोधित किया है। माहण प्रतिष्ठावाची ब्राह्मणत्व था। कल्पसूत्र६८ में श्रमण भगवान् महावीर के जन्म का विवरण दिया गया
SR No.525095
Book TitleSramana 2016 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2016
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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