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48 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 1 जनवरी - मार्च, 2016
“भगवं महावीरे...माहण-कुण्डग्गामाओ नयराओ उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसग्गुत्तस्य भारियाए देवाणंदाए माहणीए जालंधर- सगुत्ताए- कुच्छिओ खत्तियकुंडग्गामे नयरेनायाणं खत्तियाणं सिद्धत्थस्स खत्तियस्स... साहरिये । "
अर्थात् -"पूर्व तीर्थंकर के निर्देश के अनुसार श्रमण भगवान महावीर ने कुण्ड ग्राम नामक माहण-नगर में कोडाल - गोत्र्य ऋषभदत्त माहण की जालन्धर - गोत्र्य भार्या देवानन्दा माहणी की कुक्षि में गर्भ के रूप में प्रवेश किया । "
भगवान महावीर के अन्तिम उपदेश के रूप में सूत्रबद्ध उत्तराध्ययन सूत्र में 'विज्जा माहण संपया’६९ कहते हुये विद्या को माहण की सम्पदा बताया गया है तथा ब्राह्मण को 'नाइसंगे.. ..बूम माहणं' कहकर उसे असंसक्त और अनासक्त" बताया गया है। श्रमण की परिभाषा करते हुये 'समयाये समणो होइ' ७१ अर्थात् समभाव धारण करनेवाले को श्रमण कहा गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में मुनि और ब्राह्मण के अन्तर को स्पष्ट करते हुये कहा गया है कि
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जैन साहित्य ३ में मुनि के लिये साधु, संयत, वीतराग, अनगार, भदन्त, दान्त, यति आदि शब्द व्यवहृत हुये हैं। वहां मुनि की परिभाषा करते हुये कहा गया है - मननमात्रभावतया मुनिः। अर्थात् मनन मात्र भाव स्वरूप होने से वह मुनि है । अवधि, मन:पर्याय और केवलज्ञानी को भी मुनि कहा गया है। ४ यथार्थ मुनि की परिभाषा देते हुये आचार्य कुन्दकुन्द रयणसार ७५ में कहते हैं कि 'जो मुनिराज सदा तत्त्व विचार में लीन रहते हैं, मोक्षमार्ग (रत्नत्रय) का आराधन करना जिनका स्वभाव है और जो निरन्तर धर्मकथा में लीन रहते हैं अर्थात् यथावकाश रत्नत्रय की आराधना व धर्मोपदेशादि रूप दोनों प्रकार की क्रियायें करते हैं, वे यथार्थ मुनि हैं।
'न वि मुण्डिएण समणो न ओंकारेण बंभणों । न मुणी रण्ण वासेणं कुसचीरेण न तावसो ।। ७२
इसप्रकार हम देखते हैं कि मुनि परम्परा अपने विकास में ऋग्वेद से लेकर महावीर काल तक की एक सुदीर्घ यात्रा करती है जिसमें मुनि के भिन्न-भिन्न अर्थ प्राप्त होते हैं पर सभी अर्थ मुनि के प्रचलित अर्थ (संन्यासी, परिव्राजक, भिक्षु आदि) से दूर नहीं हैं।
सन्दर्भ :
१.
२.
३.
४.
५.
६.
अमरकोश- २.४२
ऋग्वेद १०.१३६.२ पर सायण भाष्य
द्रष्टव्य टर्नर, ए कम्परेटिव डिक्शनरी ऑफ इण्डों आर्यन लैंग्वेजेज ।
बृहदारण्यक उपनिषद्, ४.४.२२
अवदानशतक, १०.१३६.२
उत्तराध्ययन सूत्र, २५.३२